आखिरकार भारत में कितना स्वतंत्र रह गया है लोकतंत्र का चौथा स्तंभ “भारतीय मीडिया”?

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आज वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम-डे है और इस दिन बहुत गहनता से विचार करने का समय है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक गणराज्य में आज हिंदुस्तान का मीडिया कितना स्वतंत्र है यह सवाल अपने आप बहुत लाजमी है।

प्रश्न तो यह भी है की प्रेस फ्रीडम अर्थात प्रेस की स्वतंत्रता ही अपने आप में में सवाल बन गई है क्योंकि सवाल करने वाले पत्रकार जेल में डाले जा रहे हैं और सरकारों की जी हजूरी करने वाले पत्रकारों को सम्मानित किया जा रहा है।

बीते दिन न्यूज वन इंडिया के इंडिया के पत्रकार मनीष पांडे जी को पुलिस द्वारा हिरासत में लेकर घंटों पूछताछ की गई मनीष का कसूर यह था कि उन्होंने पीपीई जैसे तमाम जन मुद्दों पर सरकार से सवाल किया तो उन्हें घंटों थाने में बैठा कर कर कर डराया और धमकाया जाता है क्या वह पत्रकार नहीं थे और क्या यह पत्रकारिता स्वतंत्र पत्रकारिता कहलाएगी।
“पत्रकारिता का काम वो सब छापना है जो कोई और
नहीं छापना चाहता,
बाकी सब पब्लिक रिलेशन्स है।”
ये शब्द हैं अंग्रेजी के महान लेखक और लोक-प्रचारक जॉर्ज ऑरवेल के।
पत्रकारिता और पब्लिक रिलेशन्स (पीआर) के बीच बस थोड़ा सा फर्क है जो इन दोनों को एक दूसरे से अलग बनाता है। पत्रकार का काम होता है सच दिखाना और पीआर वालों का काम होता है कि चाहे झूठ हो या सच, उसे बेचना।
भारत जैसे देश बहुत सारे ऐसे पत्रकार हैं जो आज सच और झूठ में फर्क किए बिना ही एक बड़े जनसमुदाय को खबरें परोसे जा रहे हैं खबरों को संप्रदायिकता में बदलकर लोगों तक पहुंचाना तो जैसे उनका पेशा बन चुका है दिनभर झूठी खबरों से से अपनी TRP बढ़ाने वाला भारत का मीडिया अब दंगाई बन चुका है और समाज में निरंतर संप्रदायिकता की खाई खाई बनाने में दिन रात मेहनत कर रहा है।
स्वतंत्रता तो उन पत्रकारों की छीनी जा रही है जो जनता के मुद्दों को उठाते हैं जिन्हें सरकार के“पी.आर. एजेंट” छापना नहीं चाहते। जो पत्रकार सरकार से सवाल करते हैं उन्हें जेल में डाला जाता है और जो सरकार का पीआर करते हैं उनकी जेबों को रुपए से भरा जाता है।
हाल ही में केंद्र सरकार एक नया कानून लाई है है (UAPA )जिसमें किसी अकेले व्यक्ति को भी आतंकवादी घोषित किया जा सकता है भारत में कानूनों का दुरुपयोग वैसे भी कौन सी बड़ी बात है अब सरकार इस कानून का प्रयोग पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के ऊपर उनको डराने धमकाने और उनकी आवाज दबाने के लिए कर रही हैं।
कुछ दिनों पहले जामिया के छात्र व स्वतंत्र पत्रकार जुबेर को दिल्ली पुलिस ने सिर्फ इस कारण जेल में डाल दिया कि उन्होंने कि उन्होंने ट्विटर पर एक ट्वीट कर सवाल पूछा की कोरोना मरीज से बात करने वाले परिवार को क्वॉरेंटाइन क्यों किया जा रहा है इस बात पर उनको जेल में डाल दिया गया हालांकि अभी कोर्ट के द्वारा उनको अंतरिम जमानत दे दी गई है।
कोरोना जैसी महामारी के समय रिपोर्ट करने पर भी कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक पत्रकारों को गिरफ़्तार किया जा रहा है।
कश्मीर की पत्रकार Masrat Zahra को UAPA के तहत बुक किया गया है। कश्मीर के दो और पत्रकार, पीरज़ादा आशिक और गौहर जिलानी, पर भी कई तरह के आरोप लगाकर उनकी स्वतंत्रता पर सवालिया निशान लगा दिए।
कुछ समय और पीछे चले जाएं, मार्च महीने में ड्यूटी पर जा रहे आजतक के पत्रकार नवीन कुमार को पुलिसकर्मियों ने बेरहमी से पीटा था।
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स” में 180 देशों में से 142वां स्थान पाता है।शायद इसलिए हमारे देश में मेहनत से काम करने वाले पत्रकारों पर अत्याचार हो रहा है।
उदाहरण बहुत सारे हैं, लेकिन सरकार और अधिकारियों के पास जवाब नहीं है। सवाल ये है कि पत्रकारों को दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले लोकतंत्र में सवाल करने पर जेल क्यों भेजा जाता है? सवाल ये है कि अगर जनता के मत से चुनकर आई सरकार को सवाल पसंद नहीं, तो क्या उन्हें लोकतंत्र भी पसंद नहीं? सवाल है कि क्या संविधान में मिले अधिकार के ज़रिए पत्रकार अगर ख़बर खोजते हैं तो उनपर अत्याचार क्यों?
सच तो ये है कि प्रेस फ्रीडम ही एक सवाल बन गया है,
सरकारों की लल्लो चप्पो करके उसे ‘पॉज़िटिव जर्नलिज़्म’ का नाम देने वाले पत्रकारों की पत्रकारिता को सही ठहराया जा रहा है।