विजयादशमी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्थापना दिवस है और साल का सबसे महत्वपूर्ण जलसा भी होता है।
इस मौके पर संघ के स्वयंसेवक अलग-अलग शहरों और इलाकों में पथ-संचलन करते हैं, साथ ही नागपुर में संघ मुख्यालय पर हज़ारों लोगों की मौजूदगी में सरसंघचालक का सालाना संबोधन भी होता है लेकिन इस बार पथ-संचलन को रद्द कर दिया गया है।
सरसंघचालक मोहन भागवत का संबोधन सबको वर्चुअल उपलब्ध होगा। कार्यक्रम में रद्दोबदल के लिए किसी ने संघ को निर्देश नहीं दिया था लेकिन समय-काल और परिस्थिति के हिसाब से चलना और बदलाव, संघ के व्यवहार में शामिल है।
इस घटना का ज़िक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि संघ के 95 साल पूरे होते वक्त बार–बार यह सवाल पूछा जाता है कि क्या संघ बदल रहा है? क्या संघ वक्त के साथ बदलाव के लिए तैयार है? क्या संघ फ्लेक्सीबल संगठन है या कट्टरपंथी संगठन है?
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जिस रायसीना हिल से कभी संघ पर प्रतिबंध लगे आज उसी की विचारधारा वहाँ काबिज है-
किसी भी संगठन के लिए करीब सौ साल का सफर अहम होता है। एक जमाने तक आरएसएस पर रायसीना हिल से एक बार नहीं तीन-तीन बार पाबंदी लगी।
लेकिन वक्त का पहिया घूमा, समय चक्र तेजी से चल रहा था। आज संघ के लोग रायसीना हिल पर काबिज़ हैं। जो लोग समय को नहीं समझ पाते, समय उन्हें पीछे छोड़ देता है और जो वक्त से लड़ाई में नहीं हारते, वक्त उन्हें अपने सिर पर बिठा लेता है।
राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री और दर्जनों मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल और कई महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे लोग बैठे हैं जिनकी राजनीतिक और सामाजिक कार्यों की ट्रेनिंग संघ में हुई। संघ का नेटवर्क भारत से बाहर चालीस से ज़्यादा देशों में फैल गया है।
करीब सौ साल पूरा होने को है लेकिन संघ का रास्ता अब भी संस्कार, समाजसेवा और राष्ट्रवाद से होकर जाता है, यह अलग बात है कि बहुत से लोग जब अपने चश्मे से देखते हैं तो उन्हें कुछ और सूरत और इरादे नज़र आते हैं।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के महासचिव सुनील आंबेकर कहते हैं कि संघ जैसे-जैसे बढ़ रहा है, जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वयंसेवक पहुंच रहे हैं।
यह स्वाभाविक विकास है लेकिन संगठन में अभी बहुत सा काम करना है। आंबेकर कहते हैं कि संघ समाज पर शासन करने वाले संगठन के तौर पर नहीं रहना चाहता बल्कि समाज को ताकतवर बनाना चाहता है ताकि वो अपनी परेशानियों का रास्ता खुद ढूंढ सके।
जैसे पहाड़ों से गिरती नदियां समुद्र में मिलकर अपनी पहचान खो देती हैं, वैसे ही संघ समाज में मिल जाए। इसके लिए नया नारा दिया गया – ‘संघ समाज बनेगा’ यानी जब संघ और समाज एकाकार हो जाएं, एक हो जाएं।
संघ अपने संगठनों और कार्यक्रमों के लिए फीडबैक तरीके को भी अपनाता है और निचले स्तर तक इसकी व्यवस्था है। फीडबैक के हिसाब से उसमें बदलाव के लिए भी संघ ना केवल तैयार रहता है बल्कि उसमें ज़रूरी बदलाव किए जाते हैं। कई बार ज़रूरत पड़ने पर पदाधिकारियों को भी बदला जा सकता है।
आरएसएस देश की सभी भाषाओं और बोलियों को बढ़ाने और मजबूत करने पर ज़ोर देता है, खासतौर से पुरानी भाषाओं को।
संघ मानता है कि भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती बल्कि वो संस्कृति को आगे बढ़ाने का काम करती हैं। कुछ लोगों को लगता है कि संघ एक पुरातनपंथी संगठन है क्योंकि वो पुरानी संस्कृति और विचार को आगे बढ़ाने की बात करता है लेकिन संघ का दावा है कि बात इससे उलट है।
संघ संस्कृति और परपंराओं को आगे बढ़ाने के साथ आधुनिक और मौजूदा वक्त की जरूरतों के हिसाब से बदलने की बात करता है। संगठन के तौर पर भी उसमें ऐसे ही बदलाव होते रहते हैं। संघ यह मानता है कि परिवर्तन ही स्थायी है।
इक्कीसवीं सदी में देश के साथ-साथ आरएसएस भी बदल रहा है। लोगों में संघ को लेकर न केवल नज़रिया बदला है बल्कि उसमें शामिल होने वालों की तादाद भी लगातार बढ़ रही है।
संघ में जब मतभेद होते हैं तो उसको लेकर चहारदीवारी के भीतर चर्चा होती है। वहां मतभेद व्यक्त किए जाते हैं लेकिन निर्णय के बाद अनुशासन से चलना होता है, फिर अपनी राय को बाहर जाहिर नहीं किया जा सकता।
करीब सौ साल होने को आए, क्या अब संघ बदल रहा है? सवाल पर संघ के राष्ट्रीय संपर्क प्रमुख अनिरुद्ध देशपांडे कहते हैं कि आज की स्थितियां देखेंगे तो कोई भी राष्ट्रीय समस्या लीजिए, संघ ने उस पर अपना रुख स्पष्ट किया है, फिर वह चाहे महिलाओं का मामला हो, सामाजिक समरसता का विषय रहा हो या फिर राजनीतिक क्षेत्र।
ऐसा नहीं है कि आज बीजेपी सत्ता में है, इसलिए हुआ है । कांग्रेस के कमज़ोर होने, समाजवादियों के सिकुड़ने और लेफ्ट के लगभग गायब होने से राजनीति के क्षेत्र में जो खालीपन आया, वैक्यूम बना, संघ ने उसे भर दिया है।
लेकिन सच यह भी है कि संघ में बदलावों की रफ्तार बहुत धीमी है और स्वयंसेवक स्तर तक उसे पहुंचने में तो बहुत वक्त लग जाता है।
नौजवान पीढ़ी से जुड़े बहुत से सवालों पर या तो अभी संघ ने काम नहीं शुरू किया है या उन्हें स्वीकार करने में हिचकिचाहट महसूस कर रहा है। बीसवीं सदी के संघ और इक्कीसवीं सदी के हिन्दुस्तान में विचारों, मर्यादाओं, नियम-कायदों के साथ-साथ रफ्तार का भी फर्क है।
मौजूदा पीढ़ी अब खुद फैसले लेती है चाहे वो राजनीतिक हों या सामाजिक। इस बात को संघ समेत हम सब लोग जितना जल्दी समझ जाएं उतना बेहतर है। खुद को गंगोत्री समझने का अंहकार गंगा के बहाव को नहीं रोक सकता, नदी अपना रास्ता खुद ढूंढ ही लेती है।