Kisan Andolan news- शायद 6 साल में यह पहली बार हो रहा है की सरकारी चूरे हिलती हुई नजर आ रही हैं और कोई विरोध भी डट कर सड़क पर इतना जबरदस्त हो रहा है कि जो सरकार सिर्फ निर्णय लेना जान रही हो वह बात करने के लिए तैयार दिख रही हैं,
सिर्फ बात ही नहीं उनके कुछ सुझाव भी मांग रही है लेकिन आंदोलन की मजबूती ही उसकी सार्थकता सिद्ध करेगी अब तक आप समझ चुके होंगे हम किस बारे में बात कर रहे हैं जी हां किसान आंदोलन।
किसान आंदोलन की मजबूती और किसानों का रवैया जिस तरह से है उससे साफ है वह सरकार को दो टूक कह चुके हैं कि या तो बिल वापस होंगे यह सड़के हमारा घर होंगी।
समाज का ग़ैर-सरकारी और अराजनीतिक नेतृत्व जिसे लोग सिविल सोसाइटी भी कहते हैं, उसका बीच में ग़ायब हो जाना और दोबारा उभरकर सामने आना एक दिलचस्प बात है दरअसल, लोकतंत्र पर न तो राजनीतिक कार्यकर्ताओं का पेटेंट है और न कॉपीराइट। सड़कें ही डेमोक्रेसी का असल रंगमंच हैं और मानव शरीर ही विरोध का औजार।
इस समय देश में जो कुछ चल रहा है उसमें सिविल सोसाइटी का उभार ऐसी बात है जो मोदी सरकार को ज़रूर चिंता में डाल रहा होगा जब पहली बार 2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार में आई और मोदी देश के प्रधानमंत्री के गद्दी पर बैठे तो उनका राजनीतिक संदेश साफ़ था।
सरकार का लक्ष्य स्पष्ट था कि क्या करना है और क्या नहीं। इस शासन का दावा था कि जो देश की बड़ी आबादी के हित की बात होगी, वो उसी को आगे बढ़ाएँगे।
क्या सरकार और किसानों के बीच निकल सकता है सुलह का कोई रास्ता, विशेषज्ञों के पास है उपाय!
वर्चस्ववाद और बहुसंख्यक आबादी की जुगलबंदी से नया समाज गढ़ा गया –
सरकार ने ऐसा नागरिक समाज गढ़ लिया, जो सत्ता का ही एक्सटेंशन काउंटर था। यह एक ऐसी मशीन थी, जो ‘देशभक्ति’ जैसी आम सहमति वाली अवधारणाओं को मज़बूत करने में लगी थी।
‘एंटी नेशनल’ शब्द का लगातार इस्तेमाल इतना बढ़ा कि लोगों के विचारों की निगरानी जैसा माहौल बन गया, एक ऐसा माहौल जो सत्ता से मिलती-जुलती सोच कायम करने का दबाव बनाने लगा।
वर्चस्ववाद की यह कोशिश दो क़दमों से मज़बूत हुई। पहला, सभी ग़ैर-सरकारी संगठनों यानी एनजीओ को नौकरशाही की सख़्त निगरानी के दायरे में ले आया गया।
दूसरा क़दम यह था कि अगर कोई शासन से असहमत है तो वह देश की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के लिहाज से एक अवांछित तत्व है वरवर राव, सुधा भारद्वाज और स्टेन स्वामी जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अर्बन नक्सल के जिन आरोपों के तहत गिरफ़्तार किया गया है और जिस तरह से इन मामलों की सुनवाई चल रही है, उस पर भी सवाल उठे हैं।
हुकूमत की यह जकड़बंदी बहुसंख्यकवाद के तौर पर सामने आई। यह बहुसंख्यक वर्चस्ववाद और उसके शीर्ष नेता के मज़बूत होने का संकेत था इसने यह भी संकेत दिया कि सरकार पर किसी तरह की प्रतिकूल टिप्पणी कर सकने वाले संस्थान मोटे तौर पर या तो सत्ता के सामने झुक जाएंगे या फिर महत्वहीन बना दिए जाएंगे।
ऐसा माहौल तैयार हुआ कि देश की सुरक्षा को भारी ख़तरा है और देश को बचाना सबसे पहली प्राथमिकता है।
भावी खतरों को भांपकर सतह फिर से उभर आई सिविल सोसाइटी-
दरअसल, सिविल सोसाइटी के दोबारा उठ खड़े होने को पिछले कुछ समय में उभरे नीतिगत मुद्दों से जुड़ी घटनाओं की कड़ी के ज़रिये आंका जा सकता है। इनमें से हरेक घटना ने सिविल सोसाइटी के भविष्य और भाग्य पर अहम सवाल उठाए पहली घटना थी असम में नेशनल रजिस्टर पॉलिसी लागू करने की कोशिश।
भारतीय समाज की बाड़ाबंदी की गई और नागरिकता हासिल करना एक ऐसा संदिग्ध काम बन गया जो फ़र्ज़ी सर्टिफिकेट के सहारे पूरा हो सकता था। यह काम होना या न होना किसी क्लर्क की सनक पर टिका था एनआरसी के ख़िलाफ़ जो विरोध उठ खड़ा हुआ वो निश्चित तौर पर बीजेपी के बहुसंख्यकवाद के विस्तार का विरोध था।
हालांकि सिविल सोसाइटी ने वह रास्ता खोज लिया था, जिसके सहारे वह असहमति ज़ाहिर करने में सक्षम होने लगा था।
दिल्ली का शाहीनबाग औऱ सत्ता के खिलाफ संघर्ष का बिगुल-
दिल्ली के जामिया मिलिया इलाक़े में मुस्लिम गृहिणियों के एक छोटा-सा विरोध प्रदर्शन एक बड़ी घटना बन गया। इस विरोध में एक सौम्यता थी और सादगी भी। उन गृहिणियों ने दिखाया कि वे संविधान की भावना को समझती हैं। उनमें एक समुदाय के तौर पर नागरिकता की समझ साफ़ दिख रही थी।
इस प्रदर्शन में युगांतकारी घटनाओं के तत्व थे। सत्ता की ताक़त के ख़िलाफ़ किए गए नानियों-दादियों के इस प्रदर्शन ने दुनिया भर का ध्यान खींचा। उन महिलाओं ने जो संदेश दिया और गांधी से लेकर भगत सिंह और आंबेडकर तक जिन विभूतियों की तस्वीरें उन्होंने उठा रखी थी, उसने देश के सामने लोकतंत्र का एक उत्सव ला दिया।
किसानों औऱ सरकार के बीच क्यों टकराव की स्तिथि बनी है आखिर क्यों नही बन रही सहमती
असहमति की आवाज़ वाले पेशेवरों की ज़रूरत है-
असहमत पेशेवरों की भूमिका अब काफ़ी अहम हो गई है भारत के पास विरोध करने वालों का शाहीन बाग़ है लेकिन इसे असहमति की आवाज़ वाले पेशेवरों की भी ज़रूरत है।
हमें एडवर्ड स्नोडन और जूलियन असांज जैसे लोगों की ज़रूरत है। वरना डिज़िटल महत्वाकांक्षाओं से भरे मध्यवर्ग को शायद यह अहसास ही न हो कि हमारे इर्द-गिर्द एक पूरा निगरानी तंत्र खड़ा हो गया है।
अगर सीएए से यह ज़ाहिर हुआ कि नागरिकता की परिभाषा का विचार संदिग्ध था तो कोविड और किसानों के विरोध प्रदर्शनों से यह साफ़ हुआ कि सुरक्षा और विकास के नाम पर उठाए गए क़दमों ने लोगों की आजीविका को ख़तरे में डाल दिया है।
किसानों का आंदोलन मजबूत बशर्ते इसे सही दिशा की जरूरत-
किसानों के संघर्ष पर शुरुआती प्रतिक्रियाएं घिसीपिटी थीं। इन प्रदर्शनों को राष्ट्र विरोधी और नक्सलियों का आंदोलन कहा गया। एक बार फिर सिविल सोसाइटी ने किसानों के संघर्ष पर ध्यान दिया और इसे अपने फोकस में रखा।
लोगों ने महसूस किया कि मीडिया, ख़ास कर टीवी मीडिया किसानों के आंदोलन को नज़रअंदाज़ करने और उसकी छवि ख़राब करने मे लगा है।
कई टीवी चैनलों ने इसे मोदी के ख़िलाफ़ बग़ावत के तौर पर देखा है। इस सचाई को समझने की कोशिश नहीं की जा रही थी कि सरकार के सामने लोग अपनी रोज़ी रोटी के सवाल उठा रहे हैं।
किसानों का आंदोलन सिर्फ़ बड़े किसानों की आवाज़ बन कर सीमित नहीं रह सकता। इसे सीमांत किसानों और भूमिहीन मज़दूरों की आवाज़ भी बनना होगा इसे यह भी दिखाना है कि सत्ता के बड़े फ़ैसलों पर कैसे बहस चलानी है।
[…] […]
[…] […]