Kashi Mathura Temple Dispute in Hindi: एक बार फिर देश का माहौल खराब करने की कोशिश हो रही है। साल 1990 में मंडल कमीशन के बाद आडवाणी ने राम मंदिर बनाने के लिए निकाली थी रथ यात्रा। गुजरात के सोमनाथ से शुरू होकर उत्तर प्रदेश की अयोध्या में जाकर खत्म होने वाली इस यात्रा का मकसद देश के लाखों लोगों से संपर्क स्थापित करना था।
12 सितंबर, 1990 को बीजेपी अध्यक्ष ने 11 अशोक रोड पर स्थित पार्टी ऑफिस में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलवाई और राम मंदिर के लिए 30 अक्टूबर को होने वाली वीएचपी की कार सेवा में शामिल होने की घोषणा की
लाल कृष्ण आडवाणी के मुताबिक मूल योजना यह थी कि कुछ राज्यों के गावों में पैदल जाया जाए और राम मंदिर के निर्माण के लिए समर्थन मांगा जाए। उस समय तक प्रमोद महाजन ने बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं के बीच अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी थी, हालांकि उनके कदम अभी संसद में नहीं पड़े थे।
अपने विश्वासपात्र प्रमोद महाजन से आडवाणी ने अपनी योजना के बारे में बताया, जिस पर महाजन ने उनसे कहा कि पैदल यात्रा की वजह से इस जुलूस की रफ्तार धीमी पड़ जाएगी।
आडवाणी की यात्रा का सरकार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने पर पूरे देश मे दंगे भड़के, हजारों लोगों ने जान गवाई इसके बावजूद भी वीपी सिंह सरकार ने आडवाणी को गिरफ्तार करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया।
जब लालू ने लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी करवा ली
23 अक्टूबर, 1990 को आडवाणी ने पटना के गांधी मैदान में एक विशाल रैली को सम्बोधित किया। इसके बाद उन्होंने हाजीपुर और ताजपुर में बैठकों में हिस्सा लिया और देर रात 2:30 बजे समस्तीपुर के सर्किट हाउस पहुंचे।
सुबह तड़के ही वहां अर्धसैनिक बलों को तैनात कर दिया गया, हवाई पट्टी तैयार की गई और बिहार से देश के बाकी हिस्सों के लिए फोन लाइनों का संपर्क कुछ देर के लिए तोड़ दिया गया।
सुबह 6 बजे आर. के. सिंह ने आडवाणी के कमरे का दरवाजा खटखटाया और उन्हें अरेस्ट वॉरंट दिखाया और आडवाणी को गिरफ्तार करवा लिया गया। गिरफ्तारी से पहले आडवाणी ने राष्ट्रपति को एक चिट्ठी लिखी, जिसमें उन्होंने राष्ट्रपति को वी. पी. सिंह की सरकार से बीजेपी की समर्थन वापसी के बारे में सूचित किया था।
आडवाणी की रथ यात्रा के दो साल बाद बाबरी मस्जिद तोड़ने की घटना ने भी देश की राजनीति को परिभाषित किया
इस घटना ने धर्मनिरपेक्षता की धारणा को विकसित किया, साथ ही “राष्ट्रवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” की बहस को भी जन्म दिया।
लंबे अरसे तक नासूर बने रहे अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के न्यायिक पटाक्षेप को अभी साल भर भी नहीं हुआ है लेकिन लगता है कि उन शक्तियों के गलत सिद्ध होने के दिन आ गये हैं, जो कहती थीं कि जैसे भी सही, यह विवाद निपट जाए तो देश की राजनीति धार्मिक व साम्प्रदायिक आस्थाओं व दुरभिसंधियों से जुड़े मुद्दों की अंधेरी गुफाओं से बाहर निकलकर उसके व्यापक जनसमुदाय के भविष्य से जुड़े सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित हो जायेगी।
अयोध्या में ‘सफल मनोरथ’ होने के बाद से ही इन जमातों के शुभचिन्तकों ने ‘काशी विवाद’ को नये सिरे से उद्गारना आरंभ कर रखा है और अब वे मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान परिसर के पास स्थित मस्जिद को वहां से हटाने की मांग कर रहे हैं और कह रहे हैं कि कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान एवं शाही ईदगाह प्रबंध समिति के बीच पांच दशक पुराने समझौते को निरस्त कर मस्जिद की पूरी जमीन मंदिर ट्रस्ट को सौंप दी जाए!
अयोध्या तो बस झांकी है ‘काशी व मथुरा अभी बाकी हैं’
लेकिन इन जमातों को उन शक्तियों की भोली उम्मीदों और विश्वासों को गलत सिद्ध करने की आतुरता में इतना भी सब्र नहीं हो रहा कि वे कम से कम कोरोनाकाल के खात्मे तक यह संकेत न दें कि अयोध्या विवाद के फैसले को किसी पक्ष की हार या जीत के तौर पर न देखने का उनका उपदेश दूसरों के लिए ही था।
साथ ही उनके उत्साहित समर्थक यह सिद्ध करने को पूरी तरह आजाद हैं कि अतीत में उन्होंने देश के लोकतंत्र और संविधान से खिलवाड़ के क्रम में अयोध्या में जो कुछ भी किया, वह सचमुच उनके कारनामों की झांकी भर ही था और ‘काशी व मथुरा’ अभी भी बाकी हैं।
उन्हें इस बात से भी कोई फर्क पड़ता नहीं दिख रहा कि देश की संसद ने इसी अंदेशे के मद्देनज़र अयोध्या विवाद को नियम बनने से रोकने के लिए कानून बना रखा था कि किसी भी धर्म या पूजास्थल को 15 अगस्त 1947 की पहले की स्थिति में परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
अपने कुटिल मंसूबों की पूर्ति के अविवेकी उपक्रमों में वे यह भी नहीं सोच पा रहीं कि देश के अनंतकाल तक धार्मिक-साम्प्रदायिक विवादों में फंसे रहना नियति से साक्षात्कार के उसके उन संकल्पों पर बहुत भारी पड़ सकता है जो उसने 14-15 अगस्त 1947 की रात आजादी के सूर्यादय से ऐन पहले लिये थे।
प्रसंगवश, काशी में विश्वनाथ मंदिर से सटी हुई ज्ञानवापी मस्जिद स्थित है, जिसे कुछ लोग अकबर के शासनकाल में तो कुछ अन्य औरंगजेब के राज में निर्मित बताते हैं। इसी तरह मथुरा का शाही ईदगाह, कृष्ण जन्मभूमि के नजदीक बना हुआ है।
हिन्दू ‘सम्प्रदायवादी’ मानते हैं कि अयोध्या में राम जन्मभूमि की ही तरह बाबा विश्वनाथ यानी भगवान शंकर व कृष्ण में उनकी आस्था के इन दो केंद्रों को मुक्त कराना भी आवश्यक है।
और हां, वे तभी उन्हें मुक्त मानेंगे, जब उनके निकट से ज्ञानवापी मस्जिद और ईदगाह हट जायें। यों, उनके द्वारा यह भी प्रचारित किया जाता है कि दिल्ली व अहमदाबाद की जामा मस्जिदें भी हिन्दुओं के पूजास्थलों को तोड़कर ही बनाई गईं हैं।
सवाल है कि इस पृष्ठभूमि में यह देखकर कि साम्प्रदायिक शक्तियां कोरोना की कठिन घड़ी में भी काशी और मथुरा के कथित विवादों को लेकर बेसब्र हो उठी हैं, हमारा आगे का रास्ता या कर्तव्य क्या होना चाहिए?
खासकर, जब देश और समाज में फैले साम्प्रदायिक व धार्मिक उद्वेलनों का लाभ उठाकर सत्ता तक पहुंची देश की सरकार ही हमारे समावेशी लोकतंत्र व सामाजिक सौमनस्य को शताब्दियों पीछे धकेलने व धार्मिक अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने पर आमादा है।
साफ है कि जो लोग भी देश के बहुलवादी लोकतांत्रिक व संवैधानिक स्वरूप को सुरक्षित रखना चाहते हैं, इस बहस उम्मीद के सहारे बैठे रहकर गलती करेंगे कि एक दिन बहुसंख्यक समुदाय स्वयं ऐसे मुद्दों को बारंबार हवा देने की कोशिशों के खिलाफ खिलाफ उठ खड़ा होगा।
उन्हें बाबा साहेब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के इस कथन को याद करते हुए भारत के अपने विचार को लेकर इस समुदाय के पास जाना और उसके विवेक को जगाना होगा कि कोई भी विचार यों ही नहीं फलता-फूलता रहता।
उसकी जड़ों में जरूरत भर खाद पानी डालना और साथ ही उसका संरक्षण करना होता है। हां, कई बार इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है।
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