“राम मनोहर लोहिया” जिन्होंने आजाद भारत में सत्ता से सवाल पूछना सिखाया।

लोहिया का जीवन समाज, प्रयोग और सृजनात्मकता का है, जो गांधी के अंतिम व्यक्ति और आज की दुनिया के पहले व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है। लोहिया का समाजवाद सर्वोदय, फैबियन समाजवाद और मार्क्सवाद से प्रेरित था, जिसने एकात्म मानववाद और अंत्योदय के विचारों को काफी हद तक स्पष्टता प्रदान कराई।

“राम मनोहर लोहिया” जिन्होंने आजाद भारत में सत्ता से सवाल पूछना सिखाया।
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राम मनोहर लोहिया आजाद भारत के पहले ऐसे शख्स थे, जिन्होंने कांग्रेसवाद के खिलाफ आवाज उठाई थी।लोहिया ने आजाद भारत में सत्ता से सवाल पूछना सिखाया और सत्ता के खिलाफ रहकर भारतीय राजनीति के साथ भारतीयों के मन-कर्म पर गहरा प्रभाव छोड़ा।

वह हमेशा समाज और सरकार को एक साथ, एक रास्ते पर और एक समान बनाने के लिए काम करते रहे। उनका समाजवाद दुनिया के इतिहास से सीखते हुए भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति और भारतीय मानवतावाद से प्रभावित था, जिसमें सकल विश्व (दुनिया का अस्तित्व) समाहित था।

लोहिया का जीवन समाज, प्रयोग और सृजनात्मकता का है, जो गांधी के अंतिम व्यक्ति और आज की दुनिया के पहले व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है। लोहिया का समाजवाद सर्वोदय, फैबियन समाजवाद और मार्क्सवाद से प्रेरित था, जिसने एकात्म मानववाद और अंत्योदय के विचारों को काफी हद तक स्पष्टता प्रदान कराई।

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राम मनोहर लोहिया, जिन्होंने नेहरू के खर्चे पर सवाल उठाए थे-

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6 सितंबर 1963 का दिन। देश की संसद में बैठे थे भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके सामने समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया। लोहिया ने संसद में खड़े हो कर नेहरू के रोजाना खर्चे पर सवाल उठाते हुए कहा,

“जहां देश के गरीब आदमी की रोजाना आमदनी 3 आना है, वहीं प्रधानमंत्री नेहरू का रोजाना का खर्च करीब 25000 रुपये है। प्रधानमंत्री को इस बात का जवाब देना चाहिए।”

जिस देश ने हजारों सालों तक मालिक-प्रजा की व्यवस्था को अपनाया उससे लोकतंत्र की पशोपेश थोड़ा मुश्किल है-

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आजाद भारत में चीजें उतनी आसानी से नहीं बनीं, जितनी कि हमने मान ली, या जितनी हमें बताई जाती है। यह वही देश था जिसने हजारों सालों तक राजा-महाराजा यानी मालिक-प्रजा की व्यवस्था को अपनाया।

इसके बाद अगर हम आजाद होते, तो अलग बात थी। इसके बाद दो सौ साल तक हमें परतंत्र रहकर, उनके हिसाब से चलना पड़ा। तब जाकर हमें आजादी मिली थी। इस आजादी के मिलने भर से ही काम नहीं चलने वाला था, जिसे राममनोहर लोहिया अच्छे से समझते थे

इसलिए उन्होंने सबसे पहले गांधी की शरण ली और नेहरू के साथ मिलकर आजादी की आवाज को बुलंद किया। जब गांधी नहीं रहे तो उन्होंने पंडित नेहरू से अपने को अलग करते हुए, साथी की तरह समाज उत्थान का काम किया।

इस संपूर्ण यात्रा में उन्हें आंबेडकर, कृपलानी, विनोबा और जयप्रकाश का साथ भी मिला जिसे पंडित नेहरू ने खुले दिल से स्वीकार किया और ताउम्र सहयोग भी प्रदान किया।

नेहरू और लोहिया ने ही पक्ष और विपक्ष को एक बिंदु पर लाने का प्रयास किया, जिसमें दोनों सफल भी रहे। दोनों ने भविष्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने पक्ष-विपक्ष का आदर्श उदाहरण पेश किया, लेकिन हालिया परिस्थितियों को देखते हुए लगता नहीं कि हमने उनके मानकों को सही से समझा है या उस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए प्रयास किया है।

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राम मनोहर लोहिया ने भारतीय समाजवाद को परिभाषित किया-

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नेहरू फैबियन समाजवाद के पक्षधर थे, जिसमें आर्थिक गतिविधियों में एक प्रभावी निष्पक्ष प्रशासित राज्य की नियमित सहभागिता की वकालत थी, तो दूसरी ओर विपक्ष के सबसे बड़े नेता के रूप में राममनोहर लोहिया थे, जो गांधी के अंतिम दिनों तक उनके साथ नौआखली में दंगे शांत कर रहे थे।

जिन्होंने भारतीय समाजवाद को परिभाषित किया था जिसके अनुसार- ‘समता और संपन्नता’ ही समाजवाद है। दोनों की इसी समानता और संघर्षों ने आदर्श विपक्ष की उपमा दिलाई और लोकतंत्र मजबूत हुआ लेकिन हमें देखना होगा कि आज के हुक्मरान इस कसौटी पर कहां खड़े हैं।

चाहे वे अपने आपको लोहिया के शिष्य बताने वाले समाजवादी लोग हों, जिन्होंने व्यक्तिवाद की राजनीति स्थापित की है, या नेहरू को अपना पूर्वज मानने वाले हों, या फिर लोहिया से एकात्म मानववाद और अंत्योदय परिभाषित कराते हुए विपक्ष से पक्ष में पहुंचकर देश चलाने वाले ही क्यों न हों।

जब कांग्रेस ने लोहिया की पार्टी को हराने के लिए साज़िश रची-

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देशबंधु में छपी रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 1967 में कॉंग्रेस ने धर्म के सहारे सोशलिस्टों का सफाया किया। बात उन दिनों की है जब समाजवाद के मसीहा डॉ. राममनोहर लोहिया कन्नौज से लोकसभा का दोबारा चुनाव लड़ रहे थे, तो उनके विरोधी और कांग्रेस के नेताओं ने एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान एक मौलवी से शरारतपूर्ण ढंग से ये सवाल पूछवाया कि मुसलमानों में चार बीवियां रखने के बारे में उनकी क्या राय है?

डॉ राममनोहर लोहिया का सीधा और सपाट जवाब था, “पति के लिए भी पत्नीव्रता होना जरूरी है। एक से अधिक बीवियां कतई नहीं होनी चाहिए।” इस बेबाक जवाब का खामियाजा सोशलिस्ट पार्टी को भुगतना पड़ा और इलाहाबाद से लेकर बरेली तक उसका पूरा सफाया हो गया, पर लोहिया चुनाव जीत गये।

लोहिया 1962 के लोकसभा चुनाव में फूलपुर क्षेत्र से प्रधानमंत्री नेहरू के खिलाफ लड़े, जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।

पिछड़ा पावे सौ में साठ के जनक लोहिया-

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60 के दशक में राम मनोहर लोहिया ने ही कांग्रेस और ‘हिंदुस्तानी वामपंथ’ के ब्राह्मणवादी चरित्र पर सवाल करते हुए पहली दफा पिछड़ों के आरक्षण की मांग करते हुए नारा दिया ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’। दिलचस्प बात है कि पिछड़ों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले लोहिया खुद मारवाड़ी बनिया (सवर्ण) थे।

वे जाति नहीं मानते थे कहते थे कि मेरे मां बाप ज़रूर मारवाड़ी रहे हैं, पर मैं नहीं रहूंगा। पहली दफा पिछड़ों को नेतृत्व देने वाली बिहार सरकार के नेता कर्पूरी ठाकुर को नेता बनाने वाले लोहिया ही थे। ग्वालियर में रानी के खिलाफ एक दलित को चुनाव लड़ाकर रानी बनाम मेहतरानी का चुनाव बनाने वाले भी लोहिया ही थे।

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