कांग्रेस हमेशा ब्राह्रमणों, दलितों और मुसलमानों के वोट पाकर सत्ता में पहुंचती थी। सत्ता के शीर्ष पर कोई ब्राह्मण या ठाकुर बैठता था। कुछ दलितों को कैबिनेट में एडजस्ट कर लिया जाता था।
कहते हैं कि ताला खोलने के लिए चाहिए चाबी और हर किसिम का ताला खोले जो चाबी, वो कहलाये मास्टर की। दलितों को ये चाबी थमाई कांशीराम ने और उन्होंने भी दलितों को ये बता दिया कि वो भी समाज की मुख्यधारा का हिस्सा हैं। बशर्ते इसे सही धार देने की जरूरत है और कांशीराम उस काम को बखूबी करने में जुट गये।
अंबेडकर ने किताबें इकट्ठा की, मैंने लोगों को इकट्ठा किया-
एक लड़का जो सरकारी मुलाजिम की नौकरी छोड़ कभी साइकिल तो कभी बस से सफर कर एक मूवमेंट खड़ा कर रहा था। वह जानता था कि अंबेडकर का ज्ञान और जगजीवन राम की निष्ठा से दलितों का जरूरत भर भी भला नहीं हुआ।
वह कहते थे कि अंबेडकर ने किताबें इकट्ठा कीं। मैंने लोगों को इकट्ठा किया। उस लड़के का नाम कांशीराम था। आज मैं उन्हीं के बारे में आपको बताने जा रहा हूं।15 मार्च, साल था 1934 पंजाब के रोपड़ जिले के पिरथीपुर बंगा गांव में कांशीराम जी का जन्म हुआ।
अब बहुजन आंदोलन से जुड़े लोग इस गांव में बने कांशीराम के घर को चन साहिब के नाम से पुकारते हैं। चन का अर्थ होता है घर। साहिब कांशीराम के लिए उपाधि के तौर पर इस्तेमाल होता है।
जब कांशीराम ने अपने घर को खुला खत लिखा और कहा कि अब वो घर वापिस नहीं लौटेंगे-
1958 में एक्सप्लोसिव रिसर्च एंड डिवेलपमेंट लैबोरेटरी में कांशीराम ने बतौर रिसर्च असिस्टेंट जॉइन किया तैनाती हुई पूना (अब पुणे) में। यहीं पर वह बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और ज्योतिबा फुले के लेखन के संपर्क में आए और यहीं से उनके काम की शुरुआत हुई।
जानिए कैसे एक ‘शून्य’ से जीवन ने बदल दी दलितों की जिंदगी , मान्यवर कांशीराम जी का संघर्ष भरा जीवन
महाराष्ट्र में दलित आंदोलन अंबेडकर के चलते मजबूत था। साहित्य में, संगीत में, समाज में प्रतिरोध के कई स्वर थे। मगर कई अंतरविरोध भी थे और कांशीराम के वक्त जो आंदोलन के लंबरदार थे, वह बंटे हुए थे। इन सबको देख समझ कांशीराम ने अपनी योजना बनाई और उसके लिए सबसे पहले लिखा एक खत। खुला नहीं, मुंदा। घरवालों को भेज दिया। पूरे 24 पन्ने का। इसमें उन्होंने लिखा कि
1। अब कभी घर नहीं आऊंगा।
2। कभी अपना घर नहीं खरीदूंगा।
3। गरीबों दलितों का घर ही मेरा घर होगा।
4। सभी रिश्तेदारों से मुक्त रहूंगा
5। किसी के शादी, जन्मदिन, अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होऊंगा।
6। कोई नौकरी नहीं करूंगा।
7। जब तक बाबा साहब अंबेडकर का सपना पूरा नहीं हो जाता, चैन से नहीं बैठूंगा।
कांशीराम ने इन प्रतिज्ञाओं का पालन किया। वह अपने पिता के अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हुए।
कलफ का कुर्ता पहनकर और गांधीवादी बातें करके बिरादरी का भला नही हो सकता-
कांशी राम जिस समाज की लड़ाई लड़ रहे थे, वह कई चीजों से जूझ रहा था। जाति,अशिक्षा,गरीबी। कांशीराम ने तय किया कि कलफ का कुर्ता पहनकर गांधीवादी बातें करके अपनी बिरादरी का भला होने से रहा।
वह सेकंड हैंड कपड़ों के बाजार से अपने लिए पैंट कमीज खरीदने लगे। कभी नेताओं वाली यूनिफॉर्म नहीं पहनी। बाद के दिनों में सफारी सूट पहनने लगे।
कांशीराम ने सीधे अपनी पार्टी या संगठन खड़ा करना शुरू नहीं किया 1964 में उन्होंने रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया ज्वाइन की थी। आजकल इसी के एक धड़े अठावले गुट के नेता रामदास एनडीए के सहयोगी हैं।
कुछ ही बरसों में कांशीराम को समझ आ गया कि आरपीआई चुनावों में हिस्सा तो लेती है। मगर सरकारी, गैर सरकारी क्षेत्रों में जो दलित पिछड़े शोषित तबके के लोग हैं, उन्हें साथ लाने का कोई प्रोग्राम इनके पास नहीं। सत्ता में बने रहने का और उसे औजार के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए भी जिस डिजाइन की जरूरत है, वह नदारद है।
फिर कांशीराम ने पूरे देश में घूमना शुरू किया। अलग अलग तबके के लोगों से मिले। दिक्कतें समझीं। अंबेडकर के जन्मदिन के दिन 14 अप्रैल 1973 को ऑल इंडिया बैकवर्ड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉईज फेडरेशन (बामसेफ) का गठन किया। 6 दिसंबर 1978 को इस संगठन को नए सिरे से दुरुस्त किया गया।
इसके बाद बना डीएस 4 यानी दलित शोषित समाज संघर्ष समिति। साल था 1981। इनके कामकाज के सिलसिले में कांशीराम ने देश घूमा तो उन्हें सबसे ज्यादा गुंजाइश उत्तर प्रदेश में समझ आई। पंजाब में भी अच्छा रेस्पॉन्स मिला। 1984 में बीएसपी के गठन के साथ ही कांशीराम चुनावी राजनीति में कूद पड़े।
पहला चुनाव हारने के लिए, दूसरा चुनाव हरवाने के लिए। और फिर तीसरे चुनाव से जीत मिलनी शुरू हो जाती है-
पहले चुनाव में इंदिरा लहर के दौरान बीएसपी का खाता नहीं खुला। मगर हिम्मत खुल गई। दलितों की अपनी पार्टी। उत्तर भारत में जड़ें जमाती, मनुवाद और ब्राह्मणवाद को खुले आम चुनौती देती, गांधी को और कांग्रेस को सिरे से खारिज करती।
इस दौरान सधे हुए शब्द नहीं तलाशे जाते। खुंखार और खुरदुरे ढंग से कहा जाता। इसी दौर में नारे आए थे। ठाकुर ब्राह्मण बनिया चोर, बाकी सब हैं डीएस 4। या फिर तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार।
हालांकि बीएसपी अब आधिकारिक तौर पर इन नारों को अपने से नहीं जोड़ती। कांशीराम की शिष्या मायावती समझ गई हैं कि कोर वोट के आगे बढ़ने के लिए बहुजन को सर्वजन में बदलना होगा।
कांशीराम 1984 के चुनाव के बाद ये तय कर चुके थे कि रसरी को तब तक आना जाना होगा, जब तक सिल पर निसान न बने। इसलिए उन्होंने राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान वेस्ट यूपी में जब भी उपचुनाव हुए, मायावती को मैदान में उतारा।
एक बार बिजनौर से, एक बार हरिद्वार से। और आखिर में 1989 के चुनाव में इसी बिजनौर सीट से बीएसपी का खाता खुला। मायावती लोकसभा पहुंचीं। इस चुनाव में कांशीराम ने देश के अगले प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के खिलाफ इलाहाबाद से चुनाव लड़ा।
बीएसपी का मूवमेंट लगातार मजबूत होता गया। राममंदिर और मंडल के दौर में कांशीराम ने अपने मूल सपने की तरफ लौटना रणनीतिक तौर पर मुनासिब समझा। उनकी पार्टी ने मुलायम सिंह यादव की नई-नई बनी समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ कर चुनाव लड़ा। चुनाव के बाद 1993 में मुलायम सिंह के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनी। बीएसपी के मिशनरी कार्यकर्ता अब माननीय कैबिनेट मंत्री थे।
मायावती ने कहा,अब आप सत्ता में आ गए हैं नई चप्पलें पहनकर सदन में जाइए-
सत्ता के गलियारों में दलितों की ये पहली सीधी आमद थी। उन दिनों जिला जालौन से कोंच की सुरक्षित सीट से चैनसुख भारती चुनाव जीतकर पहुंचे थे। इलाके के लोग बताते हैं कि वह लखनऊ टूटी चप्पल पहनकर गए थे। बहिन जी ने उन्हें देख कहा। जाइए, अब आप सत्ता में आ गए हैं, नई चप्पलें पहनकर सदन में जाइए।
कांशीराम समझ गए थे कि मायावती ही उनकी राजनीतिक वारिस होंगी। तेर तर्रार भाषण शैली, संगठन क्षमता और कड़ाई के साथ काडर से अपनी बातें मनवाना। जल्द ही मायावती की यह स्टाइल मुलायम सिंह को अखरने लगी।
उधर मौके की तलाश में बैठे बीजेपी के पॉलिटिकल मैनेजरों ने कांशीराम को अपनी बात समझाई। कांशीराम तो कब से यही चाहते थे। सवर्णों की पार्टी के कंधे पर चढ़ दलित की बेटी पहली बार मुख्यमंत्री बन गई। साल था 1995। कांशीराम के मिशन की ये पहली बड़ी कामयाबी थी।
उसके बाद का इतिहास ज्यादातर लोगों को पता है। 1996 में कांग्रेस के साथ बीएसपी का गठबंधन। मायावती का दो बार और बीजेपी संग गठजोड़ कर मुख्यमंत्री बनना। 2007 में अपने दम पर सरकार बनाना, वो भी पूर्ण बहुमत के साथ। इन सबके पीछे कांशीराम की दिन रात की मेहनत, रणनीति और बुलंद इरादों की पृष्ठभूमि है। हालांकि उन पर ये इल्जाम भी लगा कि आखिर में उन्होंने संगठन पूरी तरह से मायावती को सौंप दिया।
कठिन दिनों के तमाम साथियों की तरफ से आंखें मूंद लीं। कांशीराम का यही कहना है कि मुझे मायावती में ही नेतृत्व की सर्वश्रेष्ठ संभावना दिखी। इसलिए मैंने उन्हें अपनी विरासत सौंपी।
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