अर्णब गोस्वामी और उनके ‘रिपब्लिक’ बाकी कई चैनलों के बीच के झगड़े ने लिखने को मजबूर कर दिया है। इस बार टीवी समाचार चैनलों के बीच छिड़े सड़क छाप बदनुमा दाग देखो कैसे साफ हो ?
मैं शुरू में ही आपको यह नहीं बताने जा रहा कि कौन झूठ बोल रहा है और कौन सच। यह कोशिश आज के ध्रुवीकृत दौर में बेकार है क्योंकि आज तो आप जिस शख्स या जिस नेता में आस्था रखते हैं उसकी हर बात को ब्रह्मवाक्य मान लेते हैं और दूसरा पक्ष जो भी कहता है वह आपको झूठ ही लगता है।
एक तरह से तो यह काफी आनंददायी विरोधाभास है कि इतने सारे चैनल और उनके महारथी एंकर, जिनका अहं उनके दर्शकों की संख्या से कहीं ज्यादा भारी है, किसी एक मुद्दे पर एकमत हुए दिख रहे हैं।
हमें मालूम है कि अर्णब लोगों को बांटने में माहिर हैं, लेकिन अब हमें पता चल रहा है कि वे अगर खतरा बने नज़र आ रहे हों तो सबसे कटु दुश्मनों को एकजुट भी कर सकते हैं।
हमारे न्यूज और मीडिया की आज की हालत में आपको कोई समानता दिखती है?
हम सब, सबसे शक्तिशाली, सबसे लोकप्रिय, सबसे अच्छे और सबसे बुरे भी इस सनक भरे युद्ध में असली हथियारों के साथ उतर पड़े हैं जहाँ हम एक-दूसरे को कोस रहे हैं, गालियां दे रहे हैं।
यह सब, कुछ समय से चल रहा है क्योंकि हम उस प्रतिद्वंदी का अच्छी तरह जवाब देने की कला सीख गए हैं जिसने वह स्टोरी पहले ही चला दी हो, जिसे आप फर्जी, प्रायोजित, अतिरंजित बताकर खारिज करने वाले थे।
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या आपने कोई स्टोरी चुरा ली हो और उस पर ‘एक्सक्लूसिव’ का ठप्पा लगाकर चला रहे हों। किसी ने कोई स्टोरी ‘ब्रेक’ की हो उस पर आगे खबर देना तो 20वीं सदी की, ‘हारे हुओं’ की बात हो गई।
पिछले दो सप्ताह से पूरा देश देख रहा है कि प्रतिद्वंदी चैनलों के रिपोर्टर, कैमरामैन किस तरह हाथापाई करते रहे हैं।
एंकरों ने प्रतिद्वंदी चैनलों के कुछ रिपोर्टरों के खिलाफ किस तरह खतरनाक मुहिम चलाई है, चाहे वे महिला रिपोर्टर क्यों न रही हों। वह भी इस तरह, जिससे भीड़ किसी ऐसे गांव में दिलचस्पी लेने लगे जहां कोई स्टोरी पक रही हो।
आज का मीडिया सत्ता से सवाल करने की बजाय उसका हिस्सा बनता नजर आ रहा है
सत्तातंत्र पर सवाल खड़े करने की पुरातन मान्यताओं की जगह उसका हिस्सा बनने की चाहत आज मीडिया में कहीं अधिक प्रबल हो चुकी है और यह भी कि हम खुद को बहुत सख्त कसौटी पर न कसें।
सत्तातंत्र पर सवाल खड़े करने के नतीजों से निपटना हमें नहीं सिखाया गया है।
ये नतीजे किसी भी रूप में सामने आ सकते हैं— नाराज मंत्री के फोन के रूप में, उसके कटाक्षों के रूप में या इंटरव्यू देने से इनकार के रूप में।
आजकल तो शुरुआत इससे ही की जाती है कि पत्रकारीय जरूरतों के लिए उस तक पहुंच असंभव कर दिया जाता है और फिर आपके यहां कुछ ‘एजेंसी’ वालों को भी भेजने तक बात जा सकती है।
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सत्ता में बैठे लोग जानते हैं कि प्रशंसकों के झुंड में से कोई इक्कादुक्का ‘कलंकित तत्व’ भटकने की मूर्खता कर ही बैठे तो उसे सबक सिखाना बाकियों को रास्ते पर लाने के लिए काफी है।
आर्थिक तंगी, तालाबंदी, वेतन कटौती का दौर जारी है।
अब न्यूज मीडिया जितना कमजोर होगा उतना ही मालिक और पत्रकार अपनी कीमत इस बात पर तय करेंगे कि वे किसके करीब हैं।
वे अपनी मुश्किलों से उबरने के लिए राज्यतंत्र पर जितने ज्यादा निर्भर होंगे, अपने प्रतिद्वंदियों को जितना परेशान करेंगे, उतनी ही तेजी से वे संस्थागत विनाश को बुलावा देंगे।
इसलिए, हम ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में पहुंच गए हैं जहां सुप्रीम कोर्ट से लेकर केंद्र सरकार तक मीडिया को ‘रेगुलेट’ करने की बात कर रही है।
आम जनता थक चुकी है और वह हमारे ऊपर हंस रही है।
बेशक, सरकार पहले नई डिजिटल मीडिया से निपटने की कोशिश करेगी। सुप्रीम कोर्ट में बात चल रही है जानी-मानी हस्तियों की कमिटी बनाने की, जो मीडिया को नियंत्रित करे क्योंकि स्व-नियंत्रण कारगर नहीं हो रहा।
यह कैसे कारगर हो सकता है जबकि मीडिया के अंदर ही युद्ध चल रहा है?
सत्तातंत्र के लिए दखल देने की यह माकूल स्थिति है। चार दशकों में बनी सबसे शक्तिशाली सरकार यह मौका क्यों गंवाना चाहेगी? वह पूरे नेक इरादों का दावा करते हुए ‘हालात को काबू’ में करने और व्यवस्था बहाल करने के नाम पर अपने पैर फैलाएगी।
वह कहेगी, हम क्या करें, जब सारे नियमों को ध्वस्त किया जा रहा है, आपके अपने संस्थान ही बंटे हुए और बिके हुए हैं और आप सब खूनखराबे में लगे हैं।
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