Moral Stories : बनारस| राजधानी रामनगर |काशी नरेश दुर्ग| बगल में लाल बहादुर शास्त्री जी की जन्मस्थली| गंगा जी का घाट और वहीं पर प्रसिद्ध द्वारिका की लस्सी| आत्मा को तृप्त करने वाली लस्सी| लस्सी का ऑर्डर देकर हम सब दोस्त-यार आराम से बैठकर एक दूसरे की खिंचाई और हंसी-मजाक में लगे थे| तभी एक लगभग 60-65 साल की बुजुर्ग महिला पैसे मांगते हुए मेरे सामने हाथ फैलाकर खड़ी हो गई।
कमर झुकी हुई|चेहरे की झुर्रियों में भूख तैरती हुईं । नेत्र भीतर को धंसे हुए किन्तु सजल थे।
उनको देखकर मन मे ना जाने क्या आया कि मैने जेब में सिक्के निकालने के लिए डाला हुआ हाथ वापस खींचते हुए उनसे पूछ लिया-“अम्मा लस्सी पियोगी ?”
मेरी इस बात पर वो वृद्ध महिला तो कम अचंभित हुईं लेकिन मेरे मित्र अधिक। क्योंकि अगर मैं उनको पैसे देता तो बस 5 या 10 रुपए ही देता लेकिन लस्सी तो 40 रुपए की एक थी।
इसलिए लस्सी पिलाने से मेरे गरीब हो जाने की, और उस वृद्ध महिला के द्वारा मुझे ठग कर अमीर हो जाने की संभावना बहुत अधिक बढ़ जो गई थी।
उस वृद्ध महिला ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो मांग कर जमा किए हुए 6-7 रुपए थे वो अपने कांपते हाथों से मेरी ओर बढ़ा दिये।
मुझे तो कुछ समझ नही आया तो मैने उनसे पूछा-” अम्मा ये किस लिए?”
“इनको मिलाकर मेरी लस्सी के पैसे चुका देना बाबूजी !” उसने बोला
भावुक तो मैं उनको देखकर पहले ही हो गया था|
रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी थी।एकाएक मेरी आंखें छलछला आईं और भरभराए हुए गले से मैने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा|
उन्होने अपने पैसे वापस मुट्ठी मे बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गई।
अब मुझे अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहां पर मौजूद दुकानदार, अपने दोस्तों और कई अन्य ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर बैठने के लिए नहीं कह सका।
डर था कि कहीं कोई टोक ना दे|
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कहीं किसी को एक भीख मांगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर में बिठाए जाने पर आपत्ति ना हो जाये| लेकिन वो कुर्सी जिस पर मैं बैठा था मुझे काट सी रही थी|
लस्सी कुल्लहड़ों में भरकर हम सब मित्रों और उस वृद्ध महिला के हाथों मे आते ही मैंने अपना कुल्लहड़ पकड़कर उस वृद्ध महिला के पास ही जमीन पर बैठ गया|
क्योंकि ऐसा करने के लिए तो मैं स्वतंत्र था|इससे किसी को आपत्ति भी नही हो सकती थी|
हां! मेरे मित्रों ने मुझे एक पल को घूरा|
लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर उस वृद्ध महिला को उठाकर कुर्सी पर बैठा दिया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा-“ऊपर बैठ जाइए साहब!
मेरे यहां ग्राहक तो रोज बहुत सारे आते हैं लेकिन इंसान कभी–कभार ही आते है।“
अब सबके हाथों मे द्वारिका की लस्सी के कुल्लहड़ और होठों पर सहज मुस्कुराहट थी|
बस एक वो वृद्ध महिला ही थीं जिनकी आंखों मे तृप्ति के आंसू, होंठों पर मलाई के कुछ अंश और दिल में सैकड़ों दुआएं थीं।
ना जानें क्यों जब कभी हमें 10-5 रुपए किसी भूखे गरीब को देने या उसपर खर्च करने होते हैं तो वो हमें बहुत ज्यादा लगते हैं|
लेकिन सोचिए कि क्या वो चंद रुपए किसी के मन को तृप्त करने से अधिक कीमती हैं?
क्या कभी भी उन रुपयों को बीयर , सिगरेट ,पर खर्च कर ऐसी दुआएं खरीदी जा सकती हैं?
जब कभी अवसर मिले तो ऐसे दयापूर्ण और करुणामय काम करते रहें|
भले ही कोई कभी आपका साथ दे या ना दे|
समर्थन करे ना करें। सच मानिए इससे आपको जो आत्मिक सुख मिलेगा| वह अमूल्य और अदभुद होगा।
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