Indian Education System: वॉर एंड पीस ,जज और वर्तमान शिक्षा पद्धति

Indian Education System: वर्तमान शिक्षा प्रणाली में हम क्या वास्तव में अपने बचपने को खोते जा रहे हैं? क्या हम अपने बच्चो को उस तरह की शिक्षा व सीख दे पा रहे है जो हमें अपने गाँव में बूढी नानी दिया करती थी ? क्या हम वो मस्ती भूल गए जो कभी हम गाँव के पेड़ो पर खेतो में किया करते थे?

Indian Education System
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Indian Education System: कभी तांगे में जुता घोड़ा देखे हो, बहुत तेज अपनी मंजिल की तरफ दौड़ता हुआ, जिसकी दोनों आँखों पर पट्टा बँधा होता है, जिससे दायें-बाँये देखकर विचलित न हो सके।

भारतीय शिक्षा प्रणाली से आदमी को ऐसा ही घोड़ा बनाया जा रहा है, जो बहुत तेज दौड़कर मंजिल तो हासिल करता है, लेकिन रास्ते की इंसान बनने की तमाम प्रक्रियाओं से महरुम रहता है। न अपना इतिहास जानता है, न सभ्यता,न संस्कृति, न भाषा,न साहित्य,न ज्ञान, न विज्ञान। बस कंपटीशन (मंजिल) क्रैक करने के नुस्खों के पीछे भागता,रटता,पढ़ता घोड़ा।

हम ही नहीं सभी मौसी के बच्चे बचपन में गिने दो महीने ननिहाल में बिताते थे, यह शायद रिश्तों की ,जीवन की सामाजिक पाठशाला होती थी। नानी कहानियां सुनातीं। बागों में चहकते, खेतों में घूमते और पूरे गाँव का चक्कर लगाते, ननिहाल के गाँव में सब जान जाते, यह फलाने के यहाँ के हैं। लेकिन अब भारतीय शिक्षा प्रणाली में बदलाव के चलते कान्वेन्ट के बच्चों के लिए ननिहाल और गर्मी की छुट्टियां दोनों खत्तम।

क्लास में मस्ती-शैतानी तो जन्मसिद्ध अधिकार था जो टीचर बोरिंग लगता, तरह तरह से उसकी क्लास डिस्टर्ब करते। कागजी गेंद बनाकर लड़कियों की तरफ फेंकते, कइयों की तो इसी प्रक्रिया में कहानी आगे बढ़ जाती। लेकिन अब कैमरे की निगरानी में मस्ती-शैतानी सब खत्तम।

10th से ही सिविल, मेडिकल, इंजीनियरिंग की कोचिंग का बोझ डाल दिया जाता है। आर्ट्स से ग्रेजुएशन स्टेटसलेस डिग्री है, साइंस में प्रैक्टिकल का खेल ही अधिकांश विश्वविद्यालयों में खत्तम। डिग्री ही लेनी जरूरी है तो प्रोफेशनल ली जाए, वो भी जितनी महँगी फीस चुकाकर, यही स्टेटस सिंबल है,पैरेंट्स और बच्चों दोनों के लिए। और हमारी भारतीय शिक्षा प्रणाली भी हमें बस परीक्षाओं में सर्वाधिक अंक लाने तक का पाठ पढ़ती है।  
सफलता का एकमात्र मतलब भव्य पूँजी है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कहाँ से और कैसे आयी।

लिट्रेचर, हिस्ट्री, फिलॉसफी, साइंस यह सब तो बेकार की चीजें हैं, इन्हें पढ़नेवाले अर्बन-नक्सली या बौद्धिक आतंकवादी टाइप लोग होते हैं, जो विकास विरोधी हैं, एंटी स्टैब्लिशमेंट हैं, जिन्हें जेल भेज देना चाहिए।

ऐसे में यह कहने -सोंचने वाले लोग ही तो जज, कलेक्टर,डॉक्टर,इंजीनियर बन रहे हैं। ऐसे में जज का क्या दोष जो उसने टॉलस्टॉय का नाम नहीं सुना, आप गाँधी का रिफरेंस बेकार में दे रहे,उसका गाँधी से भी रिश्ता नोट पर छपी तस्वीर या सिलैबस के एक टॉपिक से ज्यादा नहीं है।

वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली में पहले के समय के मुकाबले थोड़ा बहुत अंतर तो जरूर है, पर इस प्रणाली को अभी और बेहतर बनाने की आवशकता है। हमें सिर्फ परीक्षाओं में अच्छे अंक तक ही सीमीत न किया जाये, बल्कि शारीरिक वह मानसिक विकास की ओर भी अपने भविष्य को अग्रेसर किया जाये।

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