एक झूठ जो नई पीढ़ी से बोला गया कि गांधी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया

भगत सिंह कहते हैं कि 1926 आते-आते मुझे विश्वास हो गया था कि ईश्वर के होने की मान्यता बकवास है। इसके पीछे कारण यह था कि मैंने मार्क्स, लेनिन, त्रोत्स्की को खूब पढ़ा था।

एक झूठ जो नई पीढ़ी से बोला गया की गांधी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया
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आज यानी 28 सितंबर को शहीदे आजम भगत सिंह का जन्मदिन है। भगत सिंह की बात होते ही हम उनके जीवन के क्रांतिकारी पहलुओं के बारे में ही चर्चा करते हैं लेकिन एक इंसान के जीवन की कई परतें होती हैं। परत – दर-परत इंसान कई संभावनाएं लिए होता है। भगत सिंह भी ऐसी ही शख्सियत थे।

जो केवल क्रांति का ही जज्बा नहीं रखते थे बल्कि समाज के अलग-अलग मसलों पर अपने विचार रखते थे, जो उनके समकालीन लोगों से हमेशा लीक से हटकर होते थे। इसके पीछे उनका व्यापक अध्ययन और समाज को देखने का नज़रिया था। भगत सिंह का मानना था कि हम तभी किसी के तर्कों को काट सकते हैं जब हमने अध्ययन किया हो।

गांधी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास किया था!

सूचना क्रांति के बाद के दौर में लोगों के मन में भगत सिंह और गांधी के रिश्तों के बारे में कई गलतफहमियां होती चली आई हैं। देश के काफी सारे लोगों का मानना है कि भगत सिंह को बचाने के लिए महात्मा गांधी ने कोई प्रयास नहीं किया था। लेकिन तथ्यों और अध्ययन करने पर पता चलता है कि गांधी ने भगत सिंह को बचाने के लिए कई बार वायसराय को पत्र लिखा था।

गांधी चाहते तो इरविन पैक्ट के समय भगत सिंह की रिहाई की मांग कर सकते थे

इस दौर के बहुत सारे लोगों का मानना है कि गांधी-इरविन पैक्ट के समय गांधी भगत सिंह की रिहाई की मांग रख सकते थे। भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी दिए जाने के तीन दिन बाद हुए कराची अधिवेशन में गांधी ने उन पर उठाए गए सभी सवालों का जवाब दिया।

उन्होंने कहा- किसी को भी सज़ा देना मेरे नियमों के खिलाफ है। हम भगत सिंह को नहीं बचा पाए। लेकिन मैं मानता हूं कि उनका रास्ता गलत था, जो राह उन्होंने चुनी वो गलत थी।

31 जनवरी 1931 को गांधी ने इलाहाबाद में कहा था – जिसे मृत्यु दंड दिया गया है उन्हें फांसी नहीं देनी चाहिए। मेरा व्यक्तिगत धर्म यह कहता है कि उन्हें जेल में भी नहीं रखना चाहिए। हालांकि यह मेरा अपना मत है।

18 फरवरी को भगत सिंह का मुद्दा गांधी ने वायसराय के आगे उठाया। गांधी ने इस बात को यंग इंडिया में लिखा। उन्होंने लिखा कि मैंने वायसराय से कहा कि इस बात का हमारी चर्चा से कोई लेना देना नहीं है।

अगर आप इस बात को करने के लिए वर्तमान माहौल को ठीक मानते हैं तो हम इस पर बात कर सकते हैं। आपको भगत सिह की फांसी को रोक देना चाहिए। इस प्रस्ताव पर वायसराय काफी खुश हुए। उन्होंने कहा कि आपने इस तरह से इस मुद्दे को उठाया यह मुझे काफी अच्छा लगा।

हम फांसी की सज़ा को हटा नहीं सकते लेकिन इसको स्थगित करने पर विचार कर सकते हैं।

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गाँधी अहिंसा के पुजारी थे, वो किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ थे

गाँधी अहिंसा के सहारे स्वतंत्रता पाने के पक्षधर थे। ऐसे में भगत सिंह और उनके कुछ साथियों द्वारा हिंसा का सहारा लेकर स्वतंत्रता पाने के फैसले को गांधी ठीक नहीं मानते थे। अंग्रेज़ी सरकार द्वारा फांसी की सज़ा सुनाने को लेकर गांधी सहमत नहीं थे। गांधी ने 7 मार्च 1931 को दिल्ली में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था – मैं किसी भी व्यक्ति की फांसी की सज़ा को लेकर सहमत नहीं हूं,भगत सिंह की भी नहीं ।

क्या हम आज भी भगत सिंह के समाज का निर्माण कर सकें हैं?

भगत सिंह को समझने के लिए जरूरी है कि आप तथ्यों और अध्ययन के सहारे उन्हें जाने। वर्तमान समय में हर कोई अपने-अपने हिसाब से भगत सिंह को ढालना चाहता है। लेकिन उनके मूल विचारों को समझा जाए तो उसके केंद्र में समानता है जो किसी भी तरह से किसी से कोई भी भेदभाव करने की पक्षधर नहीं है।

जब भगत सिंह को हम उनकी 112वीं जयंती पर याद कर रहे हैं तो क्या उनकी कल्पना का समतामूलक समाज हम बना पाए हैं। क्या समाज में सभी समान हो सके हैं। अगर नहीं तो इतने सालों से उन्हें याद करने का हासिल क्या हुआ है। भगत सिंह का इस्तेमाल करके हमने अब तक राजनीतिक महत्वाकांक्षा, आत्मसंतुष्टि और सामाजिक बदलाव इन तीनों में से क्या पाया है?

जब भगत सिंह ने नेहरू के विचारों को अपनाने की सीख दी!

1928 में भगत सिंह ने नेहरू और सुभाष चंद्र बोस की तुलना करते हुए एक लेख लिखा। इस लेख में उन्होंने दोनों नेताओं को उनके विचार को लेकर तुलना की। इस लेख में भगत सिंह असहयोग आंदोलन के असफल होने के बाद पुराने नेताओं के हाशिए पर चले जाने और नए नेताओं के उदय को देखते हैं। ऐसे नेताओं में भगत सिंह दो शख्यियतों पर विस्तार से उनके विचारों की तुलना करते हैं।

इनमें से एक बंगाल के सुभाष चंद्र बोस और दूसरे जवाहरलाल नेहरू थे।

भगत सिंह लिखते हैं कि दोनों ही नेता भारत की आज़ादी के लिए प्रतिबद्ध हैंं लेकिन दोनों अपने विचारों के स्तर पर काफी अलग हैं। एक भारतीय संस्कृति का वाहक और भावनात्मकता से जुड़ा है तो दूसरा एक क्रांतिकारी है।

भगत सिंह नेहरू को अलग रूप से देखते हैं। उनका मानना था कि नेहरू युवाओं में विद्रोही भावना देखना चाहते थे। विद्रोह सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आर्थिक,सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। भगत सिंह का मानना था कि नेहरू तार्किक आधार पर सोचते थे न कि मान्यताओं और भावनाओं के आधार पर।

भगत सिंह बोस को एक भावनात्मक बंगाली व्यक्ति के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि बोस भारत को पूरे विश्व का आध्यात्मिक गुरू के रूप में देखते हैं। उनका सभ्यता पर विश्वास है। वो लोकतंत्र और गणतंत्र को हिंदुस्तान से ही निकला सिद्धांत मानते थे। बोस कम्युनिज़्म को भी भारत में नया नहीं मानते थे।

नेहरू और बोस के रास्ते अलग थे लेकिन दोनों की मंजिलें एक थी

सुभाष चंद्र बोस भी पूर्ण स्वराज के पक्ष में थे। लेकिन उन्होंने कहा था – पश्चिम ने अंग्रेज़ी को अपनाया है और हम पूरब के हैं। इसलिए इनका हमारे मुल्क पर राज नहीं होना चाहिए। वहीं नेहरू का मानना था कि हमें आज़ादी इसलिए चाहिए ताकि हम अपना राज कायम करें और सामाजिक व्यवस्था को बदलें।

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बोस मज़दूरों की स्थति को लेकर चिंतित थे लेकिन नेहरू चाहते थे कि क्रांति के ज़रिए इस पूरी व्यवस्था को बदला जाए। बोस ने युवाओं के लिए बहुत कुछ किया लेकिन सिर्फ दिल से। दूसरी तरफ नेहरू ने दिल और दिमाग से युवाओं के लिए काम किया।

भगत सिंह का वो लेख जिसमें उन्होंने लिखा कि मैं नास्तिक क्यों हूं?

भगत सिंह ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा अध्ययन और लेखन के कामों में लगाया था। अपने लेखन और विचार के लिए भगत सिंह अपने समकालीन सभी से आगे थे। उनका लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं‘  27 सितंबर 1931 को लाहौर के अखबार ‘द पीपल’ में प्रकाशित हुआ था।

स्वतंत्रता सेनानी बाबा रंधीर सिंह को जेल में पता चला कि भगत सिंह ईश्वर पर विश्वास नहीं करते। उन्होंने सिंह को समझाने का बहुत प्रयास किया। इसके जवाब में भगत सिंह ने इस लेख को लिखा। इसमें उन्होंने अपने नास्तिक होने को लेकर तर्क दिए।

भगत लिखते हैं कि लोग कहते हैं कि दिल्ली बम केस और लाहौर षड्यंत्र के बाद जो मुझे यश मिला है उसी के अहंकार में मैं खुद को नास्तिक मानने लगा हूं। लेकिन ऐसा नहीं है।

बचपन से ही मैं ऐसे परिवार में पला-बढ़ा हूं जो आस्तिकता में विश्वास रखता है। नेशनल कॉलेज आने से पहले तक मैं खुद आस्तिक था। यहां आकर मैंने अध्ययन करना शुरू किया और तर्कों के आधार पर सोचना शुरू किया। मेरे आसपास खासकर मेरे क्रांतिकारी मित्र भी कभी भगवान के अस्तित्व को चुनौती देने का साहस नहीं कर सके।

ईश्वर सिर्फ एक काल्पनिक विचार है

भगत सिंह कहते हैं ईश्वर द्वारा इस संसार की रचना करने की जो बात कही जाती है वो पूरी तरह से बकवास है। 1926 आते-आते मुझे विश्वास हो गया था कि ईश्वर के होने की मान्यता बकवास है। इसके पीछे कारण यह था कि मैंने मार्क्स, लेनिन, त्रोत्स्की को खूब पढ़ा था।

यह सब नास्तिक थे। जो अपने विचारों के दम पर अपने देश में क्रांति लेकर आए थे। इस विषय पर मैंने अपने दोस्तों से काफी बहस की। जिसके चलते मैं घोषित नास्तिक हो गया था।

भगत सिंंह  ने इसी लेख में लिखा कि मैं मानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा – वह अंतिम क्षण होगा।

“अछूत द सवाल”

1920-30 के समय अछूत और अस्पृश्यता को लेकर एक बड़ा सवाल समाज के सामने खड़ा था। समाज में निचली जातियों के लोगों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता था।

इसी को लेकर जून 1928 में भगत सिंह ने विद्रोही नाम से ‘अछूत दा सवाल ‘ शीर्षक से एक लंबा लेख लिखा। जिसमें उन्होंने, ‘मजदूर वर्ग,’जिन्हें अछूत माना जाता था, उनकी समस्या को लेकर, उनके प्रति समाज की सोच और कैसे यह वर्ग उठ खड़ा हो, इस पर विस्तार से लिखा और इसका हल बताया।

भगत सिंह ने अपने लेख में लिखा, हमारा देश धार्मिक मान्यताओं को मानते हुए भी मनुष्य को मनुष्य की तरह नहीं देखता है। अमेरिकन और फ्रेंच क्रांति के मूल में समानता की भावना थी।

आज रूस से भी सभी तरह के भेदभाव खत्म हो गए हैं। लेकिन हम अपने देश में देखें तो हम अपने ही लोगों के साथ ठीक से व्यवहार नहीं करते हैं। जब हमारे लोग दूसरे देश जाते हैं और उनके साथ वहां दुर्व्यवहार होता है तो वो शिकायत करते हैं। क्या हमें ऐसा करने का कोई हक है?

भारत का कुछ नहीं हो सकता

कैसे हो एक समतामूलक समाज का निर्माण

हम जानवरों को अपने पास बैठाते हैं लेकिन एक मनुष्य को अपने पास बैठाने से हिचकते हैं।
एक अच्छा समाज कैसे बनाया जाए इस समस्या का हल बहुत आसान है। हमें सभी मनुष्यों को एक समान रूप से देखना चाहिए। जन्म या उसके काम के आधार पर भेदभाव को बंद करना पड़ेगा तभी समतामूलक समाज का निर्माण हो सकता है।

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