“दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है। ” यह कहना है निदा फ़ाज़ली का जो एक उर्दू कवि और लेखक हैं।
जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था। हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। इस समय सिर्फ़ 42 वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की।
दुष्यंत कुमार की कुछ कविताये –
हो गई है पीर पर्वत-सी
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
ये ज़बाँ हम से सी नहीं जाती
ये ज़बाँ हम से सी नहीं जाती
ज़िंदगी है कि जी नहीं जाती
इन फ़सीलों में वो दराड़ें हैं
जिन में बस कर नमी नहीं जाती
देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती
शाम कुछ पेड़ गिर गए वर्ना
बाम तक चाँदनी नहीं जाती
एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
मय-कशो मय ज़रूरी है लेकिन
इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती
मुझ को ईसा बना दिया तुम ने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
साए में धूप
चांदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी
फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी
कल का सपना बहुत सुहाना था
ये उदासी न कल रही होगी
सोचता हूँ कि बंद कमरे में
एक शमअ-सी जल रही होगी
तेरे गहनों सी खनखनाती थी
बाजरे की फ़सल रही होगी
जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी
सूने घर में किस तरह सहेजूं मन को
सूने घर में किस तरह सहेजूं मन को
पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर
अब हंसी की लहरें कांपी दीवारों पर
खिड़कियां खुलीं अब लिये किसी आनन को
पर कोई आया गया न कोई बोला
खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला
आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को
फिर घर की खामोशी भर आई मन में
चूड़ियां खनकती नहीं कहीं आंगन में
उच्छ्वास छोड़कर ताका शून्य गगन को
पूरा घर अंधियारा, गुमसुम साए हैं
कमरे के कोने पास खिसक आए हैं
सूने घर में किस तरह सहेजूं मन को
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो
दरख़्त हैं तो परिंदे नज़र नहीं आते
वो मुस्तहिक़ हैं वही हक़ से बे-दख़ल लोगो
वो घर में मेज़ पे कुहनी टिकाए बैठे हैं
थमी हुई है वहीं उम्र आज-कल लोगो
किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नक़ल लोगो
तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
किसी की नींद में गड़ता रहा ख़लल लोगो
ज़रूर वो भी इसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम-शकल लोगो
दिखे जो पावँ के ताज़ा निशान सहरा में
तो याद आए हैं तालाब के कँवल लोगो
वे कह रहे हैं ग़ज़ल-गो नहीं रहे शाएर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सम्त से ग़ज़ल लोगो
बहुत बढ़िया दुष्यंत कुमार की कविताएं बहुत बढ़िया है।धन्यवाद इसे शेयर करने के लिए।
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