National Farmers Day
पूरे देश का किसान इन दिनों किसान कानूनों को लेकर दिल्ली की सड़कों पर बैठा हुआ है कारण आप भली-भांति जान सकते हैं कि भारत सरकार द्वारा लाए गए 3 कानूनों को लेकर किसानों में काफी रोष है और वह इन कानूनों को रद्द कराने के लिए लगातार आंदोलनरत है।
लोगों का कहना है यह आंदोलन अब तक का देश का नहीं दुनिया का सबसे बड़ा आंदोलन है।
जब इन ठंड भरी सर्द रातों में किसान सड़कों पर अपना आशियाना सजाए हुए हैं तब देश के इतिहास में सबसे बड़े किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह याद आते हैं।
चौधरी साहब का कहना था ‘अगर आपको असली भारत देखना हो तो आप गांव में जाइए जब तक इस देश का किसान सशक्त नहीं होगा तब तक सशक्त भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है।’
उनके जन्मदिन को ‘किसान-दिवस’ (National Farmers Day) के रूप में पूरा देश मनाता आया है लेकिन किसान आन्दोलन के चलते इस दिन का महत्व ज्यादा बढ गया है, ज्यादा प्रासंगिक हो गया है।
चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसम्बर, 1902 को उस वक़्त के यूनाइटेड प्रोविंस और अभी के उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले के नूरपुर गाँव में एक मध्यम वर्गीय कृषक परिवार में चौधरी मीर सिंह और नेत्रा कौर के यहाँ हुआ था।
पुरखे वल्लभगढ़ के निवासी थे, जो कि वर्तमान में हरियाणा में आता है। दादा 1857 की क्रान्ति में महाराजा नाहर सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लडे, नाहर सिंह को दिल्ली के चाँदनी चौक में ब्रिटिश हुकूमत ने फ़ाँसी पर चढ़ा दिया तो दादा मेरठ आकर बस गए।
यहाँ पिता पांच एकड़ जमीन के जोतदार थे, मतलब किरायेदार किसान। पिता बेटे को पढ़ा-लिखाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में उतारना चाहते थे इसलिए आर्थिक तंगी में भी खूब पढ़ाया।
विज्ञान में स्नातक, इतिहास में स्नातोकतर और फिर वकालात की पढाई करके 1928 में गाजियाबाद में वकालात करने लगे। कबीर और गांधीजी के विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित थे, पढाई के दौरान से ही जातिगत भेदभाव के सख्त खिलाफ थे।
होस्टल में रहे तब सफाई करने आने वाले हरिजन समुदाय के लोगों के साथ बैठकर खाना खाते थे और जब गाज़ियाबाद में अकेले रहकर वकालात करने लगे तो अपने यहाँ खाना बनाने के लिए हरिजन को ही लगाया।
34 की उम्र में पहली बार विधायक बने फ़िर सारा जीवन किसानों (Farmers) के हो गये-
1937 में जब चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से पहली बार चुनाव लड़ने का निर्णय लिया तो मेरठ की छपरौली विधानसभा सीट से 34 वर्ष की उम्र में विधायक चुनकर आये।
भूमिहीन और कर्ज के बोझ में दबे किसानो के प्रति कुछ करने की लालसा से 1938 में ‘कृषि उत्पाद बाजार बिल’ और 1939 में ‘किसान कर्ज माफ़ी बिल’ लेकर आये जिसने उस वक़्त की ब्रिटिश सरकार और साहूकारों की प्रताड़ना से किसानो को भारी राहत दी।
उन दोनो बिलों की चौतरफा प्रशंसा हुई और बाद में लगभग सारे प्रान्तों की सरकारें ये बिल लायीं। इस तरह चरण सिंह अब किसानों और ग्रामीणों के हितरक्षक के तौर पर जाने जाने लगे।
किसान हितैषी ये चेहरा जितना कर रहा था उस से कही गुना ज्यादा करने की सोच मन में लिए बैठा था, उस वक़्त की उनकी सोच को अगर पढ़ा जाए तो वो आज के हालात पर भी उतनी ही प्रासंगिक लगेगी।
क्या सरकार और किसानों के बीच निकल सकता है सुलह का कोई रास्ता, विशेषज्ञों के पास है उपाय!
प्रतिनिधित्व की संकल्पना के पक्षधर से चरण सिंह-
आरक्षण की संकल्पना पर उस वक़्त भी उनकी समझ और सहमति कितनी गहरी थी इसे समझने के लिए उनका 1947 में लिखा लेख “सरकारी सेवाओं में किसान-संतान के लिए पचास फ़ीसदी आरक्षण क्यों?” जरुर पढ़ा जाना चाहिए।
चरण सिंह इसमें वो आंकड़े और विचार देते है जो बाद में ‘मंडल कमीशन’ के आधार साबित हुए, वे 1931 की जनगणना के आंकड़ो को आधार बनाकर लिखते है की देश की 75 फ़ीसदी से ज्यादा आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले किसानों को सरकारी व्यवस्था में उचित ‘प्रतिनिधित्व’ देने के लिए आवश्यक है की उन्हें पचास फ़ीसदी आरक्षण दिया जाए।
इसमें वे किसानो, भूमिहीन किसानो, कृषि-श्रमिको और कृषि-आधारित अन्य कार्य करने वालो को शामिल करते है और उन्हें एक ही वर्ग के तौर पर देखते है।
वे आगे लिखते है की ये गरीबी या अमीरी का मामला नहीं है बल्कि प्रतिनिधित्व का मसला है क्योंकि अगर हमारे हालातों को जानने और समझने वाले लोग व्यवस्था में नहीं होंगे तो कैसे वे नीति-निर्माण और उसके क्रियान्वयन में हमारे हितों की रक्षा सुनिश्चित कर पायेंगे।
ग्रामीण औऱ कृषकों के हाथ में हो सिस्टम-
National Farmers Day: मेरिट के सिद्धांत को नकारते हुए चौधरी चरण सिंह कहते थे कि ये कैसी मेरिट जो आपने कुछ चुनिन्दा आधारों पर तय की है जिसमे ना सम्पूर्ण ज्ञान की परीक्षा हो सकती है ना समान रूप से मूल्यांकन।
कहते है की न्यूनतम योग्यता निश्चित रूप से लागू होनी चाहिए लेकिन मेरिट तो शक्तिशाली लोगों का बनाया हुआ विचार है क्योंकि उसके आधार पर चुना हुआ अधिकारी कल जब कृषि विभाग संभालता है तो उसका पूर्व ज्ञान किसी काम नहीं आता, उसमे सदियों से संचित ग्रामीण ज्ञान ही काम आएगा।
वे न्यायालयों और न्याय प्रक्रिया पर भी सवाल उठाते थे और कहते थे की न्यायालयों में ज्यादातर ग्रामीण मामले आते है लेकिन न्याय करने वाले ज्यादातर कभी गाँव गए भी नहीं तो उनके द्वारा किसानो-गरीबो के हालातों को समझा जाएगा इसकी उम्मीद भी करना निरर्थक ही होगा।
29 मई 1987 को 84 वर्ष की आयु में वे चिर-निद्रा में लींन हो गए। गांधी की प्रेरणा से राजनीति में आने वाले, ताउम्र गाँधी-टोपी पहने रहने वाले, कबीरवाणी को जीवन में उतारने वाले, जेपी के अग्रणी सैनानी बनने वाले और नेहरु युग में कांग्रेस में रहते हुए राम मनोहर लोहिया के समाजवाद को मानने वाले चरण सिंह किसानवादी, बहुजनवादी और
समाजवादी राजनैतिक सोच के एक अतुल्य संगम थे जिसका फायदा ये देश कभी उतना नहीं उठा पाया जितना उठा सकता था। पढने-लिखने में बेहद रुचि रखने और उसे देश-समाज में योगदान देने के लिए बेहद जरुरी समझने वाले चरण सिंह ने बहुत सारे लेख और पुस्तकें लिखीं।
उनकी लिखी पुस्तकों में ‘शिष्टाचार’, ‘ज़मींदारी उन्मूलन’, ‘भारत की गरीबी और उसका समाधान’, ‘किसानों की भूसंपत्ति या किसानों के लिए भूमि, ‘प्रिवेंशन ऑफ़ डिवीज़न ऑफ़ होल्डिंग्स बिलो ए सर्टेन मिनिमम’, ‘को-ऑपरेटिव फार्मिंग एक्स-रयेद्’ आदि प्रमुख रूप से पढ़ी जानी चाहिए।
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