क्या सरकार और किसानों के बीच निकल सकता है सुलह का कोई रास्ता, विशेषज्ञों के पास है उपाय!

क्या सरकार और किसानों के बीच निकल सकता है सुलह का कोई रास्ता विशषज्ञों के पास है उपाय!
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पूरे देश में किसान कानूनों को लेकर एक अजब माहौल बना हुआ है। देश का किसान आज खेतों को छोड़कर सड़कों पर डटा हुआ है, मानों किसानों ने ये जता दिया है कि जब तक सरकार हमारी बातें नहीं मानती, हम पीछे नहीं हटेंगे।

दरअसल किसानों और सरकार के बीच इन दिनों बहुत कुछ ठीक नहीं चल रहा है। जबसे सरकार ये 3 किसान कानून लेकर आई है, किसानों ने सरकार के खिलाफ बगावती बिगुल फूंक दिए हैं।

सरकार और किसानों के बीच कई दौर की बैठकें हो चुकी हैं, लेकिन इसका कोई हल निकलता हुआ नहीं नजर आ रहा है। यहां तक कि गृह मंत्री अमित शाह ने भी किसानों से बातचीत की पेशकश की लेकिन उस पर भी कोई खास सफलता नहीं मिल सकी।

नए कृषि क़ानून वापस लेने के फ़ैसले पर किसान संगठन के नेताओं ने सरकार से ‘हाँ’ और ‘ना’ में जवाब माँगा है। किसान नए कृषि क़ानून वापस लेने की माँग पर अड़े हुए हैं। उससे कम पर वो कोई समझौता करने को तैयार नहीं हैं।

सरकार खुले मन से कानूनों पर पुनः बातचीत करने को कह रही है-

केंद्र सरकार के मंत्री न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर किसानों को लिखित में आश्वासन देने के साथ-साथ कई दूसरी माँगें मानने को तैयार हैं।

लेकिन केंद्र सरकार अब भी नए कृषि क़ानून वापस लेने के मूड में नहीं दिख रही। अब तक सरकार और किसानों के बीच पांच दौर की बैठक हो चुकी हैं। छठे दौर की बैठक से पहले देश के कुछ विशेषज्ञों ने किसान और सरकार के बीच का गतिरोध कैसे दूर हो? इस पर कुछ कहा है। इनमें पूर्व कृषि मंत्री, फ़ूड कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया के पूर्व चेयरमैन, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फ़ूड कमिश्नर और कृषि से लंबे समय से जुड़े जानकारों का कहना है।

आलोक सिन्हा, पूर्व चेयरमैन, फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया-

आलोक सिन्हा 2005 से 2006 तक केंद्रीय कृषि मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव के पद पर रहे हैं। वो पूरे मामले का बिलकुल अलग तरीक़े का समाधान सुझाते हैं।

“किसानों के एमएसपी ख़त्म होने की आशंका बिलकुल जायज़ नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि जब से राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम क़ानून पास हुआ है तब से हर साल केंद्र सरकार को 400-450 लाख टन गेंहू और चावल की आवश्यकता रहती ही है।

इसके अलावा सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), सेना के लिए, और ओपन मार्केट में दाम को रेगुलेट करने के लिए केंद्र सरकार अनाज ख़रीदती है।

इसलिए अगले दस साल तक मुझे नहीं लगता एमएसपी ख़त्म होने वाली है। लेकिन धीरे-धीरे सरकार ने ऐसी ख़रीद कम की है, इस वजह से ये आशंका पैदा हो रही है।

भारत में ग्रामीण इलाक़े में जो किसान हैं, उनमें से 50 फ़ीसदी के पास ज़मीन नहीं है। ऐसे किसान इस आंदोलन का हिस्सा इसलिए नहीं हैं। बाक़ी के 50 फ़ीसदी में से 25 फ़ीसदी के पास एक एकड़ से कम की ज़मीन है। वो कहीं अपनी फ़सल बेच ही नहीं पाते। उसको एमएसपी का पता ही नहीं है।

बाक़ी बचे 25 फ़ीसदी किसानों में केवल 10 फ़ीसदी ही ऐसे होंगे, जो एमएसपी वाली फ़सलें मार्केट में बेचने लायक़ पैदा करते होंगे। शांता कुमार कमेटी ने कहा है कि केवल छह फ़ीसदी ही देश में ऐसे किसान हैं, मैं बढ़ा कर 10 फीसदी कह रहा हूँ।

किसानों औऱ सरकार के बीच क्यों टकराव की स्तिथि बनी है आखिर क्यों नही बन रही सहमती

इसलिए मेरी समझ से इस समस्या का समाधान ये है कि पंजाब हरियाणा के किसानों को दूसरी फ़सल (शाक- सब्ज़ी, दूसरे दलहन ) उगाने के लिए केंद्र सरकार को प्रेरित करना चाहिए और उनको प्रोत्साहित करना चाहिए।

पंजाब में धान की खेती इतनी ज़्यादा हो रही है क्योंकि सब एमएसपी पर फ़सल बिक जाती है। लेकिन इस वजह से वहाँ का जल स्तर काफ़ी नीचे चला गया है। ये पंजाब के हित में नहीं है।

लेकिन आज के दिन पंजाब के किसानों को भरोसा नहीं है कि दूसरी फ़सल उगाएंगें तो उन्हें बाज़ार में उचित मूल्य मिलेगा। सरकार को किसानों को इसके लिए मनाना होगा। उसके लिए नए स्कीम बनाने होंगे। इससे किसानों की आय भी दोगुनी होगी और सरकार को धान, गेंहू अतिरिक्त मात्रा में ख़रीदना भी नहीं होगा।

सोमपाल शास्त्री, पूर्व कृषि मंत्री

सोमपाल शास्त्री, वाजपेयी सरकार में कृषि मंत्री रह चुके हैं। उन्होंने बहुत ही सरल शब्दों में समाधान सुझाया है।

उनका कहना है”ये जो तीन क़ानून सरकार ले कर आई है, ये कोई नई बात नहीं है। इसकी औपचारिक सिफ़ारिश पहली बार भानू प्रताप सिंह की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने 1990 में की थी। तब से ये लंबित पड़ी थीं। वर्तमान सरकार ने इसे लागू किया है।

इसे लागू करने पर लाभ भी हो सकता है और हानि भी हो सकती है। लाभ केवल तब हो सकता है जब इसके साथ कुछ सहकारी सहयोगी व्यवस्थाएँ कर दी जाएँ।

इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी है न्यूनतम समर्थन मूल्य को एक गारंटी के तौर पर किसानों के लिए वैधानिक अधिकार बनाया जाए।

दूसरा, जो कृषि लागत और मूल्य आयोग है, उसे संवैधानिक संस्था का दर्जा दिया जाए। साथ ही इस आयोग का जो फ़सल लागत आंकलन का तरीक़ा है, उसको औद्योगिक लागत के आधार पर संशोधित किया जाए।

और तीसरा ये कि जो अनुबंध खेती यानी कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग से ऊपजने वाले विवाद हैं, उनके लिए ब्लॉक स्तर से लेकर जनपद स्तर, राज्य स्तर और केंद्र स्तर पर अलग ट्रिब्यूनल बने, जिनको न्यायिक अधिकार मिले।

यदि इन तीनों व्यवस्थाओं को क़ानून में संशोधित करके लागू किया जाता है तब तो इन क़ानूनों से किसानों को लाभ होगा वरना नहीं होगा। इन क़ानूनों को मेरा सपोर्ट है लेकिन ऊपर लिखे संशोधनों के साथ।

अगर सरकार ऐसा करने के लिए तैयार हो जाती है उसके बाद हमारे जैसे किसी व्यक्ति को किसानों से बात करके समझाने की ज़रूरत पड़ेगी, ताकि किसान को किसान की भाषा में समझाया जा सके। वर्तमान सरकार के पास इस निष्ठा का कोई आदमी नहीं है जो किसान के धरातल से लेकर नीति निर्धारण के सर्वोच्च स्तर की बात को समझे।

एनसी सक्सेना, पूर्व फ़ूड कमिश्नर, सुप्रीम कोर्ट

एनसी सक्सेना प्लानिंग कमिशन के पूर्व सचिव भी रह चुके हैं। उनके मुताबिक़ मामला सरकार के हाथ से अब निकल चुका है, लेकिन एक ऐसा समाधान है जिससे दोनों पक्षों की बात रह जाएगी और विवाद भी सुलझ जाएगा।

“अब दोनों पक्षों के लिए ये नए कृषि क़ानून अहम का सवाल हो गया है और क़ानून व्यवस्था का सवाल भी बनता जा रहा है,किसानों को लगता है कि वो दिल्ली रोकने में समर्थ हो जाएँगे और सरकार से अपनी बात मनवा लेंगे। केंद्र सरकार भी क़ानून वापस लेने के मूड में नहीं है।

केंद्र सरकार ने शुरुआत में थोड़ी सी ग़लती ये कर दी कि उन्हें नए कृषि क़ानून बनाते समय एक क्लॉज़ डाल देना चाहिए था कि ये क़ानून अमल में उस तारीख़ से आएगा जब उसका नोटिफ़िकेशन जारी होगा,

सैम्पल में पास हो जाने पर भी नहीं हो रही सरकारी क्रय केंद्रों पर धान खरीद ,दो-दो महीने बाद की मिल रही तारीख,दर -दर भटकने को मोहताज है किसान!

जो हर राज्य के लिए अलग भी हो सकता है और राज्यों सरकारों पर ये बात छोड़ देते कि वो कब से अपने राज्य में इस क़ानून को लागू करना चाहते हैं । इससे सारी समस्या ही हल हो जाती।

पंजाब हरियाणा के अलावा बाक़ी राज्यों में जब ये लागू होता और उससे वहाँ के किसानों को फ़ायदा होता तो पंजाब के किसान ख़ुद इसे लागू करने को कहते। समस्या ये है कि पंजाब-हरियाणा में किसानों की हालत बाक़ी राज्यों के किसानों से बहुत अलग है।

अब भी चाहे तो ऐसा प्रावधान क़ानून में जोड़ सकती है और क़ानून को वापस ना लेते हुए राज्य सरकारों पर छोड़ दे कि वो कब और कैसे इसे लागू करना चाहती है।वैसे अब देर हो चुकी है। मुझे लगता नहीं कि किसान मानेंगे, पर ये वो बीच का रास्ता है जिससे दोनों की बात रह जाएगी। ऐसा करने पर केंद्र सरकार को भी कोई नुक़सान नहीं होगा। केंद्र सरकार जिन कृषि सुधार की बात कर रही है वो इससे पूरे भी हो जाएँगे।

देवेंद्र शर्मा, कृषि विशेषज्ञ

“फ़िलहाल चाहे किसान हो या केंद्र सरकार – दोनों पक्ष अपने-अपने पक्ष को लेकर खड़े हैं। इसलिए बड़ा दिल सरकार को दिखाने की ज़रूरत है। लेकिन मेरी समझ से एक समाधान ये हो सकता है कि सरकार एक चौथा बिल या नया क़ानून लेकर आए, जो ये कहे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे ख़रीद नहीं होगी।

इससे किसानों को न्यायिक अधिकार मिल जाएगा। ऐसा करने से सरकार को तीनों बिल वापस नहीं लेने होंगे। इससे दोनों पक्षों की बात भी रह जाएगी।

कृषि क्षेत्र में भारत में बहुत दिक्क़तें हैं, इसमें सुधार लाने की ज़रूरत है। लेकिन सुधार का मतलब ये नहीं किसी भी क्षेत्र का निजीकरण कर दो। किसान आंदोलन की एक मूल माँग ये है कि किसान को एक निश्चित आय चाहिए। इसको आप कोई भी नाम दे दें। चाहे न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी (एमएसपी) की माँग हो या फिर किसान सम्मान निधि के रूप में हो।

लेकिन किसानों की निश्चित आय की समस्या को दूर करने के लिए ज़रूरत है कि एमएसपी और किसान सम्मान निधि जैसी दोनों व्यवस्था साथ साथ चले, ना कि दोनों में से कोई एक।

एमएसपी केवल 23 फ़सलों पर मिलती है जो 80 फ़ीसदी फ़सलों को कवर करती है। सरकार अगर एमएसपी पर फ़सलों की ख़रीद को संवैधानिक अधिकार भी बना देती है (एक अलग बिल लाकर) तो देश के 40 फ़ीसदी किसान के पास बेचने के लिए कुछ नहीं होगा, क्योंकि वो छोटे किसान हैं। इसलिए उस खाई को भरने के लिए सरकार को छोटे किसानों के लिए ज़्यादा से ज़्यादा किसान सम्मान निधि जैसी योजनाओं की ज़रूरत पड़ेगी।

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