आखिर उत्तर प्रदेश सरकार के निशाने पर सिर्फ़ पत्रकार क्यों ?

पहले भी यूपी में कई स्थानीय पत्रकारों के ख़िलाफ़ कथित तौर पर सरकार विरोधी ख़बरें छापने के जुर्म में एफ़आईआर दर्ज हो चुकी हैं।

आखिकार उत्तर प्रदेश सरकार के निशाने पर सिर्फ़ पत्रकार क्यों ?
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उत्तर प्रदेश में  प्रेस की स्वतंत्रता कहने मात्र को ही रह गई है। सबसे ज्यादा एफ आई आर पत्रकारों के ऊपर दर्ज हो रहे हैं। उनके काम करने को लेकर हाथरस वाले प्रकरण में पत्रकारों के साथ जैसा व्यवहार हुआ और फिर केरल के पत्रकार के ऊपर राजद्रोह के चार्ज लगा उसकी गिरफ्तारी करना, कहीं न कहीं प्रेस स्वतंत्रता पर सवाल खड़े कर रही है। आखिरकार सूबे की योगी सरकार पत्रकारों से इतनी नाराज क्यों रहती है?

अगर उन मुक़दमों की बाते करें, जिनमें कथित तौर पर शासन-प्रशासन की आलोचना करने के जुर्म में पत्रकारों के ख़िलाफ़ दर्ज की गई थीं। इन मुक़दमों के बाद कई पत्रकारों की गिरफ़्तारियाँ भी हुई थीं, जिन्हें कुछ समय हिरासत में रहने के बाद ज़मानत भी मिल गई थी।

लेकिन उनके ख़िलाफ़ दर्ज मुक़दमे जारी हैं। कभी IBN 7 जैसे चैनल में वरिष्ठ पत्रकार रह चुके और वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मीडिया सलाहकार शलभ मणि त्रिपाठी कहते हैं कि “पत्रकारों को अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास होना चाहिए।

मुख्यमंत्री को लेकर सवाल करने पर ‘द वायर’ के संपादक पर एफआईआर दर्ज हो गई-

कुछ समय पहले ही वरिष्ठ पत्रकार और अंग्रेज़ी न्यूज़ वेबसाइट ‘द वायर’ के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के ख़िलाफ भी उत्तर प्रदेश के अयोध्या में दो एफ़आईआर दर्ज की गई थीं।

उन पर आरोप थे कि उन्होंने लॉकडाउन के बावजूद अयोध्या में होने वाले एक कार्यक्रम में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शामिल होने संबंधी बात छापकर अफ़वाह फ़ैलाई।

राज्य सरकार की इस कार्रवाई का देश भर के बुद्धिजीवियों ने विरोध किया और इस बारे में एक बयान जारी किया, जिसमें कई जाने-माने क़ानूनविद, शिक्षाविद, अभिनेता, कलाकार और लेखक शामिल थे। इन लोगों ने अपने बयान में कहा था कि यह प्रेस की आजादी पर सीधा हमला है।

हालांकि ‘द वायर’ ने जवाब में कहा कि इस कार्यक्रम में मुख्यमंत्री का जाना सार्वजनिक रिकॉर्ड और जानकारी का विषय है, इसलिए अफ़वाह फ़ैलाने जैसी बात यहां लागू ही नहीं होती। इस मामले में सिद्धार्थ वरदराजन को भी हाईकोर्ट से अग्रिम ज़मानत मिल गई थी।

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पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर का एक सिलसिला यूपी में –

इससे पहले भी यूपी में कई स्थानीय पत्रकारों के ख़िलाफ़ कथित तौर पर सरकार विरोधी ख़बरें छापने के जुर्म में एफ़आईआर दर्ज हो चुकी हैं।

पिछले साल मिर्ज़ापुर में मिड डे मील में कथित धांधली की ख़बर दिखाने वाले पत्रकार पर दर्ज हुई एफ़आईआर के बाद सरकार की काफी किरकिरी हुई थी।

इस घटना का दिलचस्प पहलू ज़िले के कलेक्टर का वह बयान था जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘प्रिंट मीडिया का पत्रकार वीडियो कैसे बना सकता है?’ इस मामले में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया को हस्तक्षेप करना पड़ा था।

लॉकडाउन के दौरान ही यूपी के फतेहपुर जिले के पत्रकार अजय भदौरिया पर स्थानीय प्रशासन ने एफ़आईआर दर्ज कराई थी। अजय भदौरिया ने रिपोर्ट लिखी थी कि एक नेत्रहीन दंपत्ति को लॉकडाउन के दौरान कम्युनिटी किचन से खाना लेने में कितनी दिक्कतें हो रही हैं।

पत्रकारों को अपने काम करने को लेकर कार्यवाही कितनी जायज है ?

मिर्ज़ापुर में मिड डे मील में कथित धांधली की ख़बर दिखाने वाले पत्रकार के खिलाफ़ दर्ज मुक़दमे का मामला अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि उसी समय बिजनौर में कथित तौर पर फ़र्ज़ी ख़बर दिखाने का आरोप लगाकर पांच पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करा दी गई।

वहीं आज़मगढ़ में एक पत्रकार पर प्रशासन ने धन उगाही का आरोप लगाकर एफ़आईआर दर्ज कराई और फिर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया।

स्थानीय स्तर पर खनन और अपराध जैसे गंभीर मामलों में रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को कथित तौर पर माफ़िया के हमलों का शिकार तो अक्सर बनना ही पड़ता है लेकिन जब छोटी-मोटी बातों में प्रशासन की भी नज़रें टेढ़ी होने लगें तो ये मामला बेहद गंभीर हो जाता है और पत्रकारों के सामने सुरक्षा का सवाल भी खड़ा हो जाता है।

अहम सवाल यह भी है कि क्या खबर लिखने के आरोप में पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर और गिरफ़्तारी जैसी कार्रवाई होनी चाहिए, वो भी इसलिए कि इससे सरकार की छवि खराब हो रही है?

खबर से आपत्ति है तो पत्रकारों से अपराधी की तरह पेश आएंगे-

मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार शलभ मणि त्रिपाठी कहते हैं, “प्रशासन या सरकार यदि एफ़आईआर करा रही है तो ज़रूर कोई गंभीर बात होगी और यदि पत्रकार अपनी जगह सही होगा तो अदालत में यह बात साबित हो जाएगी।”

लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र की माने तो, “पत्रकार ने ख़बर लिखी और किसी को आपत्ति है तो उसके लिए कई फ़ोरम बने हैं।

आप संपादक से शिकायत कर सकते हैं, प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया में जा सकते हैं, यहां तक कि कोर्ट में भी जा सकते हैं लेकिन आप उसके साथ अपराधी की तरह पेश आएंगे, एफ़आईआर कर देंगे और फिर गिरफ़्तार कर लेंगे, ऐसा नहीं होना चाहिए।

इससे साफ़ पता चलता है कि आलोचना सुनने की सहनशक्ति आप में नहीं है और आप प्रतिशोध की भावना से काम कर रहे हैं।

सरकार के क्वारन्टीन सेंटर पर स्टोरी कर दी तो एफआईआर दर्ज हो गई-

लॉकडाउन के दौरान क्वारंटीन सेंटरों में हो रही अनियमितताओं की वजह से भी कई पत्रकारों को सरकारी अफ़सरों के कोपभाजन का शिकार बनना पड़ा।

सीतापुर में ऐसे ही एक मामले में रवींद्र सक्सेना नाम के एक पत्रकार के ख़िलाफ़ स्थानीय प्रशासन ने एफ़आईआर दर्ज कराई। रवींद्र सक्सेना ने क्वारंटीन सेंटर में मिल रहे ख़राब गुणवत्ता वाले खाने की ख़बर प्रकाशित की थी।

पिछले साल राजधानी लखनऊ में असद रिज़वी के खिलाफ़ भी प्रशासन ने न सिर्फ़ एफ़आईआर दर्ज कराई थी बल्कि स्थानीय पुलिस ने कथित तौर पर उन्हें ऐसी ख़बरें न लिखने के लिए धमकाया भी था।

लखनऊ में कई पत्रकार संगठनों ने इसकी शिकायत मुख्यमंत्री से भी की थी और पत्रकारों को धमकाने जैसे मामलों को बेहद गंभीर बताते हुए इसे रोकने की मांग की थी।

लोकतंत्र के लिए ठीक संकेत नहीं इस तरह बदले की भावना से कार्यवाही-

लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार और इंडियन फ़ेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट के राष्ट्रीय अध्यक्ष के. विक्रम राव कहते हैं, “पत्रकार का काम ऐसा है कि किसी न किसी पक्ष को पीड़ा पहुंचेगी ही लेकिन सरकार अपनी आलोचना न सुन सके, ये स्थिति बेहद गंभीर है।

हो सकता है कि इसके पीछे सरकार का प्रचंड बहुमत का अहंकार हो लेकिन यह लोकतांत्रिक मूल्यों को कितना नुक़सान पहुंचा रहा है, इसका अंदाज़ा शायद सरकार में बैठे लोगों को नहीं है। प्रशासनिक स्तर पर ऐसी कार्रवाइयों का सिर्फ़ एक मक़सद है- पत्रकारों को डराना।

“दिल्ली स्थित ‘राइट एंड रिस्क्स एनालिसिस ग्रुप’ ने हाल के दिनों में ऐसे 55 पत्रकारों को परेशान किए जाने के उदाहरण इकट्ठे किए हैं जिन्हें सरकारी नीतियों की आलोचना या फिर ज़मीनी हक़ीक़त दिखाने की वजह से मुक़दमों का सामना करना पड़ा है

और गंभीर धाराओं में उन पर केस दर्ज हुए हैं। इनमें सबसे ज़्यादा 11 मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज हुए हैं जबकि जम्मू-कश्मीर में 6 और हिमाचल में 5 ऐसे मामले हैं।

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प्रधानमंत्री के गोद लिए गांव पर रिपोर्टिंग करने पर एक वेबसाइट के पत्रकार के साथ क्या क्या नहीं हुआ-

इसी वर्ष जून के महीने में लॉकडाउन के दौरान एक न्यूज़ वेबसाइट की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा और वेबसाइट की मुख्य संपादक के ख़िलाफ़ वाराणसी पुलिस ने एक महिला की शिकायत पर एफ़आईआर दर्ज की थी।

सुप्रिया शर्मा ने पीएम मोदी के गोद लिए गांव डोमरी में लॉकडाउन के दौरान लोगों की स्थिति का जायज़ा लेती हुई एक रिपोर्ट अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित की थी। इस दौरान उन्होंने कई लोगों का इंटरव्यू किया था जिनमें माला देवी नाम की एक महिला भी शामिल थीं।

वेबसाइट के मुताबिक, इंटरव्यू के दौरान माला देवी ने रिपोर्टर को बताया था कि वह लोगों के घरों में काम करती हैं और लॉकडाउन के दौरान उनकी आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब हो गई कि उन्हें खाने तक के लाले पड़ गए।

रिपोर्ट के अनुसार महिला ने रिपोर्टर को यह भी बताया था कि उनके पास राशन कार्ड नहीं था, जिसकी वजह से उन्हें राशन भी नहीं मिल पा रहा था।रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद में माला देवी ने कहा कि उन्होंने ये बातें रिपोर्टर को नहीं बताई थीं और रिपोर्टर ने उनकी ग़रीबी का मज़ाक उड़ाया है।

माला देवी की शिकायत पर वाराणसी में रामनगर थाने की पुलिस ने 13 जून को एफ़आईआर दर्ज की जिसमें अन्य धाराओं के अलावा एससी-एसटी ऐक्ट के तहत भी मुक़दमा दर्ज किया गया।

ये बात क़ाबिले तारीफ है कि एफ़आईआर के बावजूद सुप्रिया शर्मा अपनी रिपोर्ट पर कायम रहीं और उनका दावा है कि उन्होंने कोई भी बात तथ्यों से परे जाकर नहीं लिखी है।

एफ़आईआर में वेबसाइट की संपादक को भी नामज़द किया गया था। सुप्रिया शर्मा ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एफ़आईआर रद्द करने की अपील की लेकिन हाईकोर्ट ने उनकी यह अपील ख़ारिज कर दी।

यह ज़रूर है कि कोर्ट ने उनकी गिरफ़्तारी पर भी तब तक के लिए रोक लगा दी जब तक कि मामले की मुक़म्मल जांच न हो जाए।

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