न नरेंद्र मोदी का जादू न ही कांग्रेस की नाकामी, अरविंद केजरीवाल इस दशक के सबसे बड़े राजनीतिक सिकंदर

अरविंद केजरीवाल इस दशक के सबसे बड़े राजनीतिक सिकंदर
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Political Leaders 2020 :समय को तो माने पंख लगें हो बस चलता जा रहा हो चलता जा रहा हो। नित नये इतिहास बनते और फ़िर एक इतिहास रचा जाता। जैसे कोई सीमा रेखा खींची जाए, फिर उससे आगे बढ़कर एक और बड़ी रेखा खींच दी जाए।

कुछ ऐसा ही रहा वर्तमान का दशक और इसकी यादें पिछले दशक की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना न तो नरेंद्र मोदी का जबरदस्त उत्कर्ष है, न कांग्रेस पार्टी की भारी पतन है और न ही राहुल गांधी की निरंतर नाकामी है और न ही समाजवादी पार्टी तथा बसपा, या शिवसेना तथा कांग्रेस-एनसीपी जैसे घोर दुश्मनों का अप्रत्याशित मेल है।

अब जबकि यह उथलपुथल भरा यह दशक समाप्त होने को है, अरविंद केजरीवाल इस दौर के सबसे महत्वपूर्ण और एकदम नये राजनीतिक आख्यान के रूप में उभरे हैं।

न कोई राजनीतिक आधार, न चुनाव लड़ने का कोई अनुभव, और न ही किसी स्थापित संगठन से कोई जुड़ाव, फिर भी अरविंद केजरीवाल ने जो कामयाबी हासिल की है वह ऐतिहासिक है।

भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी से सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ता बने केजरीवाल की कहानी ऐसी है, जैसी भारतीय राजनीति में कभी सुनी नहीं गई थी। कोई राजनीतिक आधार, कोई चुनावी या जमीनी राजनीति के अनुभव के बगैर, और किसी स्थापित संगठन से जुड़ाव न होने के बावजूद केजरीवाल का प्रदर्शन अप्रत्याशित रहा है।

पहले ही चुनावी समर में उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री की गद्दी पर कब्जा कर लिया और इसके बाद हुए दो विधानसभा चुनावों में उनकी स्थिति और प्रबल हुई है।

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राजनीतिक अपरिपक्वता होने के बावजूद भी मोदी और शाह की जोड़ी को मात दी-

राजनीतिक अपरिपक्वता होने के बावजूद भी मोदी और शाह की जोड़ी को मात दी-

 

वर्तमान में दिल्ली सरकार के मुखिया और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने कुछ मौकों पर गलतियां की होंगी, वे किसी विचारधारा से या सुसंगत सिद्धान्त से भले न जुड़े हों, और कई बार परेशान कर देने वाली अपरिपक्वता और प्रशासनिक अनुभवहीनता का भले परिचय दिया हो, लेकिन वे उन चंद दुर्लभ नेताओं में हैं,

जिन्होंने नरेंद्र मोदी–अमित शाह के इस दौर में अपनी जमीन बचाए रखी है। यह तब और उल्लेखनीय हो जाता है जब यह देखा जाता है कि वे राजनीति में बिलकुल नये हैं।

इसमें शक नहीं कि मुख्यधारा की राजनीति में पहले भी ऐसी कई गैर-राजनीतिक शख्सियतें कदम रख चुकी हैं जिनमें सरकारी अधिकारी भी शामिल हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर ने पहले से मौजूद किसी-न-किसी राजनीतिक दल से शुरुआत की।

लेकिन अरविंद की तरह किसी की बुलंदी के सितारे इतनी जल्दी कामयाब नहीं हुए।  केजरीवाल भारतीय राजनीति के मैगी नूडल सरीखे हैं— फटाफट तैयार!

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गुजरते दशक के सबसे दिलचस्प सियासी घटनाक्रम-

गुजरते दशक के सबसे दिलचस्प सियासी घटनाक्रम

 

अपने अंजाम को बढ़ रहे गुजरते दशक में बहुत कम ही ऐसी घटनाये संज्ञान में आई हैं, जिसमें ऊबाऊ पन रहा हो। ये दशक एक्शन से भरपूर रहा इनमें सबसे बड़ी, ऐतिहासिक घटना रही नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय मंच पर धमाकेदार प्रवेश और भारतीय मतदाताओं पर उनकी अभूतपूर्व पकड़।

अभूतपूर्व इसलिए कि इंदिरा गांधी बेशक सबसे लोकप्रिय नेता रहीं लेकिन उन्हें चुनौती देने वाली राजनीतिक पार्टियों की संख्या उतनी नहीं थी जितनी आज मोदी को चुनौती देने वाले दलों की है।

अपने सबसे काबिल वज़ीर अमित शाह के साथ वे एक-एक करके राज्यों पर कब्जा करते गए हैं और उत्तर-पूर्व समेत उन लगभग सभी क्षेत्रों पर भाजपा का झण्डा फहराया है जहां उसका पारंपरिक आधार नहीं था।

अपने शुरुआती पत्रकारिता के दौर की समझ में मैंने ये अनुभव जरूर किया है कि मोदी को मध्य प्रदेश से असम और त्रिपुरा तक कितनी भारी लोकप्रियता हासिल है।

वे अपनी गंभीर भूलों के बावजूद बेदाग बच निकलते रहे हैं, चाहे यह नोटबंदी (2016) ही क्यों न हो। यही नहीं, उन्होंने जनता से संवाद करने वाली, व्यक्ति-केन्द्रित, चौबीसों घंटे वाली राजनीति के युग का सूत्रपात कर दिया है।

पिछला दशक कई दिलचस्प राजनीतिक प्रकरणों का भी गवाह रहा। 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने राम मंदिर विवाद पर विराम लगाया, तो नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) विवाद का नया

मुद्दा बन गया; टूजी घोटाला और कोयला घोटाला सुर्खियों से हटे, तो मनमोहन सिंह की यूपीए-2 का पतन सुर्खियों में प्रमुखता पाने लगा; अध्यादेश की प्रति फाड़ते राहुल गांधी की तस्वीर धुंधली हुई, तो वाइ. एस. जगन मोहन रेड्डी और अखिलेश यादव सरीखे युवा वंशवादी राजनीति के क्षितिज पर उभर आए।

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राजनीति में धुर विरोधी एक होकर भी समीकरण न बना पाये-

राजनीति में धुर विरोधी एक

वर्तमान दशक गठबंधन की राजनीति— गठजोड़ करने के तरीकों के मामले में और एक-दूसरे के धुर विरोधियों से हाथ मिलाने के मामले में भी— के विकास का भी दशक रहा है

और ये गठबंधन मुख्यतः मोदी-शाह जोड़ी का सामना करने के लिए किए गए। कभी कट्टर दुश्मन रहीं सपा और बसपा ने उत्तर प्रदेश में हाथ मिलाए, तो शिवसेना ने कांग्रेस-एनसीपी से गठबंधन किया; 2015 में राजद और नीतीश कुमार के

जदयू साथ हुए, लेकिन जल्दी ही अलग भी हो गए यानि पिछले कुछ वर्षों में गठजोड़ करने की मजबूरियों वाला पहलू ही प्रबल हुआ।

वाम दलों का पतन भी एक बड़ी राजनीतिक कहानी रही। 2011 में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने वाम दलों के गढ़ पश्चिम बंगाल पर कब्जा जमाया, तो 2017 में त्रिपुरा में भाजपा ने कम्युनिस्टों को सत्ता से बेदखल कर दिया। इस दशक में मोदी के उत्कर्ष ने कांग्रेस का तेजी से पतन किया।

यूपीए-2 के समय से शुरू हुई यह गिरावट लगातार जारी है और उसका नेतृत्व संकट इतना गंभीर है कि उम्मीद की कोई किरण तक नहीं नज़र आती।

2004 में औपचारिक तौर पर राजनीति में कदम रखने वाले राहुल गांधी अपनी सफलताओं से ज्यादा पार्टी का नेतृत्व करने और उसे चुनाव जिताने में अपनी अक्षमता के अलावा अपनी मनमानी अनुपस्थितियों के कारण खबरों में रहे हैं।

2014 के चुनाव में कांग्रेस का महज 44 सीटों पर सिमट जाना निश्चित ही एक ऐतिहासिक और इस दशक की सबसे उल्लेखनीय राजनीतिक घटना थी।

अरविंद केजरीवाल दशक के सबसे शानदार सिकन्दर-

तमाम बातों के बावजूद अरविंद केजरीवाल ही दशक के सबसे दमदार सितारे नज़र आते हैं जिनका नाम दिल्ली के मुख्यमंत्री होने के बावजूद पूरे भारत में गूंजता है।

उदाहरण के लिए, अपनी तमाम कामयाबियों के साथ और चुनावी राजनीति तथा प्रशासनिक अनुभवों के बूते नरेंद्र मोदी तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे। उन्हें काडर आधारित आरएसएस का ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पार्टी का भी पूरा समर्थन हासिल था। मोदी ने इन मजबूत आधारों पर अपनी इमारत खड़ी की।

किसी गैर-राजनीतिक व्यक्ति ने तमाम गैर-राजनीतिक लोगों के साथ मिलकर राजनीतिक पार्टी बनाई हो और लगातार दो चुनावों में चमत्कारी बहुमत से जीत हासिल की हो, ऐसा आपने कब देखा या सुना था? यही नहीं, एक सामाजिक आंदोलन को राजनीतिक मुहिम में बदलने में भी वे सफल रहे और एक साल बाद ही

2012 में उन्होंने ‘आप’ का उदघाटन कर दिया। दिल्ली विधानसभा चुनाव-2013 के बाद ‘आप’ ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली, हालांकि यह गठबंधन जल्दी ही टूट गया। लेकिन केजरीवाल ने 2015 और 2020 के चुनावों में शानदार जीत हासिल की, बावजूद इसके कि देश में मोदी का बोलबाला था, केजरीवाल का राजनीतिक सफर बहुरंगी रहा है—

एक उग्र आंदोलनकारी से लेकर एक अति सावधान, फूंक-फूंक कर कदम रखने वाले मुख्यमंत्री तक; पारदर्शिता के लिए आंदोलन करने वाले कार्यकर्ता से लेकर भारत के दूसरे नेताओं की तरह अपारदर्शी नेता तक; सुशासन का वादा करने वाले मुख्यमंत्री से लेकर प्रशासन पर कमजोर पकड़ (जैसा कि कोविड संकट के दौरान दिखा) रखने वाले शासन तक।

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