मेरा शीश नवा दो अपनी
चरण-धूल के थल में।
देव! डुबा दो अहंकार सब
मेरे आँसू-जल में।
अपने को गौरव देने को
अपमानित करता अपने को,
घेर स्वयं को घूम-घूम कर
मरता हूं पल-पल में।
देव! डुबा दो अहंकार सब
मेरे आँसू-जल में।
अपने कामों में न करूं मैं
आत्मा प्रचार प्रभो;
अपनी ही इच्छा मेरे
जीवन में पूर्ण करो।
मुझको अपनी चरम शांति दो
प्राणों में वह परम क्रांति हो
आप खड़े हो मुझे ओट दे
हृदय-कमल के दल दल में।
देव! डूबा दो अहंकार सब
मेरे आँसू जल में।
भारत के राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक जय हो’ के रचयिता रविंद्र नाथ टैगोर का आज जन्मदिन है, उनका जन्म 7 मई 1961 को कोलकाता में हुआ था।
रविंद्र नाथ टैगोर भारत के ऐसे पहले व्यक्ति थे जिनको नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
ऊपर दी हुई पंक्तियां गीतांजलि से ली गयी हैं और उन्हें गीतांजलि के लिए ही नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था।
कौशल से भरे रविंद्र नाथ टैगोर को साहित्य, संगीत, कला, शिक्षा जैसे कई क्षेत्रों में महारत थी।
आइए जानते हैं उनके बारे में कुछ रोचक बातें –
रविंद्र नाथ टैगोर अपने माता पिता की तेरहवीं संतान थे। उनके घर का नाम ‘रबी’ था। अपने जीवन की पहली कविता उन्होंने 8 वर्ष की उम्र में लिखी थी और कहानियाँ और नाटकों को लिखने का सिलसिला उन्होंने 16 साल की उम्र से प्रारंभ कर दिया था।
टैगोर को प्रकृति से काफ़ी लगाव था, उनका मानना था कि छात्रों को प्रकृति की छांव में शिक्षा हासिल करनी चाहिए। अपनी इसी सोच को ध्यान में रखकर उन्होंने ‘शांति निकेतन’ की स्थापना की थी।
जब रविंद्र नाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो उन्होंने साफ तौर से यह लेने से इनकार कर दिया था। कहा जाता है कि एक ब्रिटिश राजदूत ने उनका नोबेल पुरस्कार लिया और बाद में उनको सौंपा था।
ब्रिटिश लोगों ने उनको सर नाम की उपाधि दी थी जो उन्होंने जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के बाद लौटा दी थी।
बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के रविंद्र नाथ ने देश और विदेश के साहित्य, दर्शन, संस्कृति को अपने अंदर समाहित कर लिया था। रविंद्र नाथ ने अपने जीवन में अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और चीन सहित दर्जनों देशों की यात्रा भी की थी।
उनके द्वारा स्थापित किए गए ‘शांति निकेतन’ से निकली एक महान शख्सियत नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन बताते हैं कि वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए वह महात्मा गांधी का विरोध करने से भी नहीं चूकते थे।
एक बार 1934 में बिहार में आये भूकंप को ले कर गांधी ने लोगों से यह कहा था ‘हमारे पापों खासतौर पर अस्पष्टता के पाप के कारण भगवान की तरफ से यह दी गई सजा है’ इस बात का टैगोर ने खुलकर विरोध किया था, इस बयान पर रविंद्र नाथ टैगोर ने कहा कि ‘प्राकृतिक घटना के बारे में इस तरह का अवैज्ञानिक नज़रिया बेहद दुखतपूर्ण है, यह इसलिए और भी ज्यादा है क्योंकि देश का बड़ा तबका ऐसी बातों को फौरन स्वीकार कर लेता है’
टैगोर बहुत बड़े देश प्रेमी थे, इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की अंग्रेजों के समाजवाद को लेकर के टैगोर ने काफी कड़ी आलोचनाएं की थी टैगोर मानते थे कि ब्रिटिश जिस नागरिक अधिकारों पर वह गर्व करते हैं उन्हें ही भारत में क्रूरता से कुचल देते हैं
रविंद्र नाथ द्वारा लिखा गया एक क्रांति गीत “एकला चलो रे”
“एकला चलो रे” आधुनिक भारत के झारखंड के गिरिडीह शहर में लिखा गया था। यह गीत भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के स्वदेशी काल के दौरान लिखे गए 22 विरोध गीतों में से एक था। यह गीत “अमर सोनार बांग्ला” के साथ, यह 1905 में बंगाल प्रेसीडेंसी में विभाजन विरोधी आंदोलन के प्रमुख गीतों में से एक बन गया।
”एकला चलो रे” का रिकॉर्ड इतिहास
”एकला चलो रे” यह एक बंगाली गीत था जिसे सबसे पहले 1905 और 1908 के बीच रवींद्रनाथ टैगोर ने खुद रिकॉर्ड किया था। बाद में यह गीत प्रख्यात रवीन्द्र संगीत गायिका सुचित्रा मित्रा ने दो बार रिकॉर्ड किया, पहला 1948 में , फिर फिल्म संदीपन पाठशाला के लिए, 1984 में। एल्बम रूपांतोरी के सुचित्रा मित्रा द्वारा इस गीत की तीसरी रिकॉर्डिंग भी है। उस्ताद अमजद अली खान द्वारा एल्बम ‘ट्रिब्यूट टू टैगोर’ से उक्त गीत के साथ चौथी बार, उन्होंने पार्श्व संगीत के रूप में गाते भी रिकॉर्ड किया।
”एकला चलो रे” हिंदी अनुवाद
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे
ओ तू चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे
यदि कोई भी ना बोले ओरे ओ रे ओ अभागे कोई भी ना बोले
यदि सभी मुख मोड़ रहे सब डरा करे
तब डरे बिना ओ तू मुक्तकंठ अपनी बात बोल अकेला रे
ओ तू मुक्तकंठ अपनी बात बोल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
यदि लौट सब चले ओरे ओ रे ओ अभागे लौट सब चले
यदि रात गहरी चलती कोई गौर ना करे
तब पथ के कांटे ओ तू लहू लोहित चरण तल चल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
यदि दिया ना जले ओरे ओ रे ओ अभागे दिया ना जले
यदि बदरी आंधी रात में द्वार बंद सब करे
तब वज्र शिखा से तू ह्रदय पंजर जला और जल अकेला रे
ओ तू हृदय पंजर चला और जल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे
ओ तू चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे
वर्तमान की राजनीति को देखते हुए टैगोर की कही गई बात याद आती है ‘मैं हिरे के दाम में कांच नहीं खरीदूंगा जब तक जिंदा हूं समानता के ऊपर राष्ट्रभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा’ पूरी मानवता को एक सूत्र में पिरोने का ख्वाब देखने वाले टैगोर ने प्रकाशित एक लेख में लिखा है कि ‘राष्ट्रवाद की बेड़ियों को तोड़ कर पूरी मानवता को एकता का लक्ष्य हासिल करना चाहिए’।
7 अगस्त 1941 को रविंद्र नाथ टैगोर का निधन हो गया था। कौशलों से भरे इस व्यक्तित्व्य को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता था। उनके 80 साल के जीवन में उनकी कविताओं में प्रखर विचारों और गहरे मानवतावादी जीवन की झलक देखने को मिलती है।
ब्रिटिश सरकार द्वारा चलाई जा रही ‘फूट डालो राज करो’ की नीति पर टैगोर ने लिखा
‘देवी कहीं नहीं है,
जो है वह मनुष्यता है,
जो है वह सत्य और सुंदर है,
जो है वह मनुष्य और मनुष्यता है,
मनुष्य और मनुष्य के बीच,
अहिंसा और प्रेम का मानव बंधन है,
घृणा और हिंसा के धर्मस्थल की पाषाण प्रतिमा में देवी नहीं है।
दो धर्मों के बीच सांप्रदायिक हिंसा की घटना को देखकर टैगोर काफ़ी दुखी होते थे।
दशकों पहले उनके द्वारा लेख में उन्होंने कहा कुछ स्वार्थी समूह अपनी महत्वाकांक्षा और बाहरी उकसावे से प्रेरित होकर सांप्रदायिक सोच को बढ़ावा देते हैं और उसका इस्तेमाल विनाशकारी राजनीतिक उद्देश्यों के लिए करते हैं”
रविंद्र नाथ टैगोर अपनी कविताओं के माध्यम से मानवता के सिद्धांत लगातार समझाने की कोशिश करते रहे हैं।
वर्तमान की राजनीती स्थति को देख कर क्या आपको आज भी वो पुराना समय याद आता है जब ब्रिटिशो द्वारा ‘फुट डालो राज करो’ की निति अपनायी थी। उस समय ब्रिटिशो ने हमें धर्म, जाती और रंग में भेद करवाया था पर क्या आज भी फिर से उन्ही सांप्रदायिक मुद्दों को हमारे बिच उठाया जा रहा है ?