मिस्र के पिरामिडों के बाद दुनिया की सबसे रहस्यमय आकृतियाँ स्तूप हैं जो अपने अन्दर बहुत से रहस्य समेटे हुए हैं। स्तूप का हर अंग एक संकेत है। ठीक प्रकार से अध्ययन किया जाए तो स्तूप सम्पूर्ण बुद्ध धम्म का प्रतीक अंकन होता है। एक समय ऐसा भी आता है जब धरती से धम्म विलुप्त हो जाता है लेकिन प्रतीक रूप में यह स्तूप विद्यमान रहते हैं।
कोई प्रज्ञावान अनुभूति सम्पन्न व्यक्तित्व इन प्रतीकों से पुनः धम्म उद्घाटित करता है। इसकी आकृतियों में नाम-रूप, दो अतियां, तीन रत्न, चार आर्य सत्य, पंच स्कन्ध, पंचेन्द्रियाँ, षडायतन, सप्त बोध्यांग, आर्य अष्टांग मार्ग, नवलोक, दस पारमिताएं, एकादस निपात, द्वादशनिदान इत्यादि धम्म के समस्त संकेत प्रतीकित किये जाते हैं।
भगवान बुद्ध का पहला भोजनदान
निरंजना नदी के तट पर सम्बोधि उपलब्धि के ठीक बाद भगवान बुद्ध को पहला भोजनदान कम्बोज के दो व्यापारी बन्धुओं तपस्सु और भल्लिक ने दिया था, बोधगया में, शहद खिलाया था। भगवान ने उन्हें उनके भोजनदान के अनुमोदनस्वरूप अपने सिर से तोड़ कर आठ बाल उपहार में दिये थे। वो व्यापारी बन्धु उन बालों को ले कर ब्रम्हदेश यानी बर्मा गये। वहाँ के राजा ने उन बालों पर एक स्तूप बनवाया। बर्मी भाषा में स्तूप को पगोडा कहते हैं। स्तूप को बौद्ध शब्दावली में चैत्य भी कहते हैं।
भगवान के काया में रहते हुए उनके केश धातुओं पर स्तूप बनने का यह प्राचीनतम साक्ष्य है। यंगोन में स्थापित वह स्तूप आज भी बर्मा का सबसे पूजनीय स्थल है।
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स्तूप क्या है ?
स्तूप पालि भाषा में थूप लिखा मिलता है। थूप का शाब्दिक अर्थ मिट्टी का टीला होता है, लेकिन बुद्ध धातुओं से संलग्न थूप अर्थात स्तूप एक पूजनीय स्थान हो जाता है। आने वाली पीढ़ियों व काल के लिए यह इतिहास को संरक्षित करने का माध्यम भी है।
स्तूप के साथ सामान्य-सी अवधारणा यह है कि यह भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण अथवा अन्य अरहतों के परिनिर्वाण के उपरान्त उनके धातु अवशेषों यथा केश, नख, अस्थि, पात्र, चीवर इत्यादि को स्थापित कर निर्मित किये गये हैं अथवा किये जाते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। यद्यपि कि भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के उपरान्त उनके धातु अवशेषों के आठ हिस्से किये थे जिन पर प्रथमतः आठ स्तूप बने थे।
भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके ‘फूलों’ को लेकर राजवंशों के बीच युद्ध जैसी स्थति उत्पन्न हुई-
भगवान गौतम बुद्ध के अन्तिम संस्कार के उपरान्त उनके ‘फूलों’ को लेकर उनपर स्तूप बनाने की आकांक्षा में राजवंशों के बीच युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। चूंकि महापरिनिर्वाण कुशीनगर में हुआ था इसलिए भगवान के फूलों के लिए पहली दावेदारी कुशीनगर के मल्लों ने ही की, फिर पावा के मल्लों ने भी दावा किया।
कपिलवस्तु के शाक्यों का सबसे प्रबल आग्रह था क्योंकि भगवान शाक्य वंश से थे। मगध सम्राट अजातशत्रु ने भी साग्रह दावा किया क्योंकि अजातशत्रु के पिता सम्राट बिम्बिसार भगवान के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु थे। स्थिति विवाद व युद्ध जैसी हो गयी। तब द्रोण नामक ब्राह्मण ने हल निकाला। उसने सभी दावेदारों को शान्त किया। सबसे आह्वान किया कि भगवान आजीवन खन्तिवादी अर्थात शान्तिवादी रहे और आप लोग उनके ही नाम पर युद्ध के लिए लड़ रहे हैं।
फिर द्रोण ने उपाय निकाला कि भगवान की अस्थियों के आठ हिस्से किये। आठ हिस्सों के वितरण के बाद पिप्पली के मौर्यों ने जब भगवान का महापरिनिर्वाण का समाचार सुना तो वे भी अस्थियों का आग्रह लेकर आए। तब तक अस्थियाँ वितरित हो चुकी थीं, तो उन्होंने भगवान की चिता की राख व अंगारों को संग्रहीत किया।
उस पर ही स्तूप बनवाया, इसलिए उस स्तूप को अंगार चैत्य कहा जाता है। अंतिम संस्कार में प्रयुक्त बर्तनों को श्रद्धापूर्वक द्रोण ब्राह्मण ने स्वयं के लिए स्वीकार किया और उन पर भी एक स्तूप बनवाया। इस प्रकार आरम्भ में भगवान के धातु अवशेष निम्न में वितरित हुए जिन पर दस स्तूप बने।
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दस स्तूप के नाम
1. मगध नरेश अजातशत्रु
2. वैशाली के लिच्छवि
3. कपिलवस्तु के शाक्य
4. अलकप्प के बुली
5. रामग्राम के कोलीय
6. वेठदीप के ब्राह्मण
7. पावा के मल्ल
8. कुशीनगर के मल्ल
9. पिप्पली के मौर्य (राख)
10. द्रोण ब्राम्हण (बर्तन)
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