भगत सिंह के जन्मदिन पर जाने , कि क्यों हर भारतीय भगत सिंह का कर्ज़दार है ?

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का भारत देश की आज़ादी में महत्त्वपूर्ण योगदान है

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शहीद भगत सिंह को उनके जन्मदिन पर कोटि कोटि सादर प्रणाम शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का भारत देश की आज़ादी में महत्त्वपूर्ण योगदान है। वो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक अत्यंत प्रभावशाली क्रांतिकारी थे, जो जीवनपर्यन्त देश की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ो से संघर्ष करते रहे। उनका जन्म 27 सितम्बर 1907 को पंजाब के लायलपुर जिले में (जो अब पाकिस्तान में है) एक सिख जाट परिवार में हुआ था। इनके जन्म के समय इनके पिता सरदार किशन सिंह अपने दो भाइयों के साथ अंग्रेज़ो के विरुद्ध होने वाले संघर्ष के कारण जेल में बंद थे। इनके घर के वातावरण में ही राजनीति और देश-प्रेम के प्रति लगाव होने से इनके अंदर भी देश -प्रेम का जज़्बा था।

भगत सिंह को पुस्तकें पढ़ने का बहुत ही ज्यादा शौक था। 1917 की रूसी क्रांति के प्रभावशाली नेता व्लादिमीर लेनिन का इनके जीवन पर अत्यंत गहरा प्रभाव पड़ा, तभी से भगत सिंह ने समाजवाद और समाजवादी क्रान्ति, राजनीतिक और आर्थिक विषयों से सम्बंधित बहुत सी पुस्तकों का अध्धयन किया। डिकेन्स, ऑस्कर विल्डे, मैक्सिम गोर्की, विक्टर ह्यूगो, स्टेप्निक और भी कई लेखक इनके पसंदीदा थे। एक आंकड़े के अनुसार- अपने स्कूल के दिनों में इन्होने 50 से ज्यादा पुस्तकें पढ़ी थीं, कॉलेज के दिनों में 200 तक और गिरफ़्तारी के बाद जेल में 716 दिन तक बंद रहने पर इन्होने लगभग 300 पुस्तकें पढ़ी। इस प्रकार से इन्होने अपने जीवन के अंतिम समय तक सैकङो पुस्तकें पढ़ी। फांसी होने के अंतिम छण तक ये लेनिन की ‘स्टेट एंड रेवोलुशन’ पढ़ रहे थे। जब इनको ले जाने के लिए बुलाया गया तब इन्होने कहा-थोड़ी देर रुको, अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से बात कर रहा है।

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इन्होंने अमृतसर में पंजाबी और उर्दू भाषा के समाचार पत्र, जो कि मार्क्सवादी सिद्धांत के थे, में एक संपादक के तौर पर भी काम किया। ‘वीर अर्जुन’ नामक समाचार पत्र में इन्होंने कई उपनाम से भी अपने लेख लिखे थे ।

देश के आज़ादी के प्रति इनकी चेतना कब और कैसे जाग्रत हुई ?

भगत सिंह के किशोरावस्था में हुई दो घटनाओँ ने इनके अंदर देश-प्रेम और आज़ादी के प्रति एक क्रान्ति की ज्वाला जला दी। पहली घटना 1919 का जलियांवाला बाग़ हत्याकांड और दूसरी घटना 1921 में ननकाना साहिब में निहत्थे अकाली प्रदर्शनकारियों की हत्या । इन दोनों घटनाओ का इनके मन मस्तिष्क पर अत्यंत ही गहरा प्रभाव पड़ा। इनका परिवार गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित था जो कि अहिंसा का पालन करते थे। भगत सिंह भी प्रारम्भ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सहयोगी थे पर चौरी-चौरा घटना होने के बाद गाँधी जी के असहयोग आंदोलन वापस लेने के फैसले से भगत सिंह खुश नहीं हुए और उन्होंने अपने आपको भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अपने आपको अलग कर लिया और युवा क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए।

मार्च 1925 में, यूरोपियन राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित होकर, भगत सिंह के साथ नौजवान भारत सभा की स्थापना की गयी। भगत सिंह ने ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से भी जुड़े और बाद में,1928 में, इनके साथी क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद और सुखदेव के साथ मिलकर इसका नाम ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ किया गया।

साइमन कमीशन के विरोध में 30 अक्टूबर 1928 को हुए आंदोलन में पुलिस वालों के द्वारा लाला लाजपत राय पर बहुत ही क्रूर तरीके से लाठीचार्ज हुआ जिसकी वजह से 17 नवम्बर 1928 को उनका निधन हो गया। इसी घटना का बदला लेने के लिए ही भगत सिंह ने ब्रिटिश पुलिस अफसर जॉन सांडर्स की गोली मारकर हत्या की। पुलिस ने इनको गिरफ्तार करने की कोशिश की पर वो बच निकलने में कामयाब हो गए। इनके बच निकलने में क्रांतिकारी दुर्गा भाभी का बहुत बड़ा योगदान है। 8 अप्रैल 1929 को अपने सहयोगी और मित्र बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर इन्होंने सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में दो बम फोड़े, इसमें कोई भी हताहत नहीं हुआ। इस घटना के तुरंत बाद ही इन्होंने अपनी गिरफ्तारी दी और ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ का नारा भी दिया।

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इस घटना के कुछ दिन पहले ही इन्होंने अपनी ये हैट वाली फोटो दिल्ली के कश्मीरी गेट स्थित रामनाथ फोटोग्राफर्स के यहाँ खिचवाई थी ।

इनकी गिरफ्तारी के बाद ये 716 दिन तक जेल में ही रहें और 24 मार्च 1931 को इनकी फांसी का दिन निर्धारित किया गया पर नियत दिन से एक दिन पहले ही इनको फांसी दे दी गयी । उस समय इनकी आयु 23 वर्ष 5 महीने और 23 दिन थी।

फाँसी के एक दिन पहले अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था –

उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है? हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?

दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें। सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।।

इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।

“किसी ने सच ही कहा है, सुधार बूढ़े आदमी नहीं कर सकते । वे तो बहुत ही बुद्धिमान और समझदार होते हैं । सुधार तो होते हैं युवकों के परिश्रम, साहस, बलिदान और निष्ठा से, जिनको भयभीत होना आता ही नहीं और जो विचार कम और अनुभव अधिक करते हैं ।”~ भगत सिंह

इस प्रकार से इनके जीवन का अंत हुआ परन्तु इस घटना के बाद देश में और भी ज्यादा संख्या में युवा वर्ग देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने को तैयार हो गया।

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