किसानों औऱ सरकार के बीच क्यों टकराव की स्तिथि बनी है आखिर क्यों नही बन रही सहमती

किसानों औऱ सरकार के बीच क्यों टकराव की स्तिथि बनी है आखिर क्यों नही बन रही सहमती।
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बीते कई दिनों से सरकार और किसानों के स्तिथि भीषण बनी है किसान अपनी मांगों को लेकर दिल्ली,हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश की सीमाओं पर डटा है उनका साफ कहना है

या तो सरकार यह तीनों कानून वापस ले या फिर एमएसपी के लिए कोई नया कानून लेकर आए जब तक हमारी बातें मानी नहीं जाती यह आंदोलन खत्म नहीं होगा हालांकि सरकार ये नहीं चाह रही है उसकी छवि किसान विरोधी बने जिसके लिए कल सरकार की ओर से दो चरणों मे किसान संगठनो के नेताओं से बातचीत की गई।

लेकिन इस बातचीत का कोई हल नही निकला। किसानों को सरकार समझाने में हर तरह से असमर्थ रही।किसानों के साथ इस महत्वपूर्ण वार्ता में खुद कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और रेलमंत्री पीयूष गोयल मौजूद थे। बातचीत से पहले गृह मंत्री अमित शाह राजनाथ सिंह, पीयूष गोयल, नरेंद्र तोमर और जगत प्रकाश नड्डा के बीच एक बड़ी बैठक चली थी।

केंद्र सरकार और नए कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे किसानों के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत की पहल भले ही देर से की गई हो लेकिन सहमति इस बात पर ज़रूर है कि बातचीत ही एक सही विकल्प है।

बातचीत के दौरान दोनों पक्षों को एक दूसरे के तर्क को मीडिया के बजाए सीधे आमने-सामने बैठकर सुनने का अवसर मिलेगा। मंगलवार को हुई बातचीत में तीन बजे दोपहर को पंजाब के 32 किसानों के प्रतिनिधि शामिल थे और सात बजे शाम वाली बातचीत में हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दूसरे सभी राज्यों के प्रतिनिधि शामिल थे।

सरकार ने किसानों की समस्या सुनने और उसका हल खोजने के लिए कमिटी बनाने की पेशकश की, जिसे किसानों ने ठुकरा दिया।

बातचीत तो ठीक है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार और किसानों के बीच विश्वास की सख्त कमी है। दोनों को एक दूसरे की बातों और तर्क पर ज़रा भी यक़ीन नहीं है और यहाँ तक कि केंद्र सरकार और उन राज्य सरकारों के बीच भी विश्वास की कमी पाई जाती है जो इन तीन नए क़ानूनों से ख़ुश नहीं हैं।

मुंबई स्थित आर्थिक विशेषज्ञ विवेक कौल कहते हैं केंद्र सरकार को क़ानून लाने से पहले किसानों और राज्य सरकारों को इसके लिए राज़ी करना चाहिए था। उनके अनुसार कृषि क्षेत्र में सुधार की ज़रूरत है इससे किसी को इंकार नहीं लेकिन मोदी सरकार ने ज़मीनी सच का पूरी तरह से अध्ययन नहीं किया और संसद में जल्दबाज़ी में बिल पारित करा लिया।

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किसान सरकार पर भरोसा क्यों नही कर रहे हैं-

महाराष्ट्र के किसानो के अनुसार उनकी संस्था भारतीय किसान संघ और सरकार के बीच बातचीत जून में शुरू हुई थी। आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ का पक्ष ये है कि नए क़ानून में सब कुछ किसानों के पक्ष में नहीं है लेकिन इसके विरोध में सड़कों पर उतर जाने के बजाए सरकार से बातचीत जारी रखनी चाहिए।

उत्तर भारत के बहुत सारे किसानो को सरकार पर विश्वास नहीं है। दोनों के बीच ग़लतफ़हमी है जिसका समाधान बातचीत से ही हो सकता है। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फरनगर शहर में भारतीय किसान संघ के प्रवक्ता धर्मेंद्र मलिक कहते हैं, “किसानों को सरकार पर भरोसे का मुद्दा है ही नहीं।

मुद्दा ये है कि ये तीनों नए क़ानून किसान विरोधी हैं। इसमें सरकार की बात या मोदी के आश्वासन पर भरोसा न करने वाली कोई बात ही नहीं है।”

प्रधानमंत्री की बातों पर भी नहीं हो रहा विश्वास-

उधर सरकार किसानों को अपना तर्क मनवाने के लिए मीडिया और सोशल मीडिया का आक्रामक तरीके से इस्तेमाल करते हुए दिख रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार कहा है कि ये नए क़ानून किसानों की आय को बढ़ाने में मदद करेंगे।

सरकार का एक लक्ष्य है कि 2022 तक किसानों की आय दुगनी हो जाए। सरकार का नया क़दम इसी उद्देश्य को हासिल करने का एक प्रयास बताया जाता है। सरकार के कई विभाग भी प्रधानमंत्री के पैग़ाम को आगे बढ़ाने और सरकार की ‘अच्छी नीयत’ के प्रचार में लगे हुए हैं।

नीति आयोग के कृषि समिति के एक सदस्य रमेश चंद ने दो दिन पहले पीटीआई न्यूज़ एजेंसी से एक बातचीत में कहा कि किसानों ने नए कृषि क़ानूनों को पूरी तरह से या ठीक से नहीं समझा है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि इन नए क़ानून से किसानों की आमदनी बढ़ेगी।

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सरकार की किन बातों पर भरोसा नहीं है किसान को –

किसान चाहते हैं कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को जारी रखे। धर्मेंद्र मलिक कहते हैं कि नए क़ानून में संशोधन करके सरकार ये निश्चित करे कि ये प्रावधान इसमें शामिल हो। मोदी ने आश्वसन दिया है कि ये जारी रहेगा लेकिन किसान चाहते हैं कि क़ानून में इसकी गारंटी दी जाए।

पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चावल और गेहूं की सबसे बड़ी ख़रीदार सरकार खुद है। पंजाब में 90 प्रतिशत चावल और गेहूं किसानों से सरकार खरीदती है।

पंजाब और हरियाणा के किसानों को डर इस बात का है कि सरकारी लाइसेंस वाली मंडियों यानी एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) के अंतर्गत जो वो उनके उत्पादन खरीदती हैं वो नए क़ानून के तहत नहीं खरीदेगी। उन्हें इस बात का भी डर है कि सरकार एमएसपी को भी ख़त्म कर देगी।

किसानों को नए क़ानून में दूसरी बड़ी आपत्ति ‘कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग’ या ‘ट्रेड मार्किट’ के शामिल किए जाने से है। किसान इसका विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ‘अंबानी और अडानी जैसे उद्योगपतियों को कृषि क्षेत्र में एंट्री का ये खुला न्यौता है।

किसान कहते हैं कि उद्योगपतियों के लिए मैदान साफ़ किया जा रहा है। सरकार का अगला क़दम उन्हीं के लिए होगा।सरकार के अनुसार इससे किसानों की आय में इज़ाफ़ा होगा और उन्हें बिचौलियों के शोषण से बचाया जा सकेगा।

लेकिन किसानों को उन पर भरोसा नहीं। विवेक किसानों के अनुसार “इस बात की संभावना कम है कि बड़े उद्योगपति और कॉर्पोरेट की दुनिया की बड़ी कंपनियां राज्य सरकार के सहयोग के बगैर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कर सकेंगे या ट्रेड मार्किट स्थापित कर सकेंगे। छोटे किसानों से सीधा संपर्क करना उनके लिए असंभव होगा।”

मंगलवार को सरकार और किसानों के बीच बातचीत का पहला दौर संपन्न हुआ, अभी कई राउंड की बातचीत हो सकती है। किसान कह रहे हैं “मोदी जी दबाव में हैं और उन्हें हमारी मांग पूरी करनी ही होगी”

दूसरी तरफ़ प्रधानमंत्री मोदी ने सोमवार को वाराणसी में नए कृषि क़ानून के फायदे एक बार फिर गिनाए और ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि वो किसानों की मांग स्वीकार कर लेंगे।

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