देश संविधान की खूबसूरती के लिये अलग अलग संस्थाये है जब तक ये स्वन्त्र रूप बिना एक दूसरे के दबाव या गठजोड़ काम नहीं करेंगी देश संवैधानिक मान्यताओं के अनुसार चलता रहेगा और उस देश में किसी भी प्रकार की प्रशासनिक अस्थिरता पैदा नहीं होगी।
अगर हम लोकतंत्र में इन स्तम्भों या संस्थाओं की व्याख्या करें तो इन तीनों को लोकतंत्र का आधार-स्तंभ माना जाता है।विधायिका का काम कानून बनाना है, कार्यपालिका कानूनों को लागू करती है और न्यायपालिका कानून की व्याख्या करती है।
न्यायालय ने भले ही कोविड-19 महामारी और सर्दी में लोगों की जिंदगी सुरक्षित करने के मकसद से आदेश दिया हो लेकिन अब कभी भी कोई भी प्रभावशाली समूह या वर्ग किसी केन्द्रीय कानून के विरोध में दिल्ली की घेराबंदी करके या सामान्य जनजीवन बाधित करके किसी भी कानून पर रोक लगवाने का प्रयास कर सकता है।
किसानों के आन्दोलन के मद्देनजर तीन नये कृषि क़ानूनों के अमल पर रोक लगाने के उच्चतम न्यायालय के आदेश ने एक गलत परपंरा डाल दी है।
विवादित तीन कृषि क़ानूनों की संवैधानिकता जांचे बिना सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस पर रोक लगाने के क़दम की आलोचना हो रही है। विशेषज्ञों ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय का ये काम नहीं है।
इससे पहले ऐसे कई केस- जैसे कि आधार, चुनावी बॉन्ड, सीएए को लेकर मांग की गई थी कि इस पर रोक लगे, लेकिन शीर्ष अदालत ने ऐसा करने से मना कर दिया था। खास बात ये है कि जहां इस मामले में याचिकाकर्ताओं द्वारा कानूनों पर रोक लगाने की मांग नहीं की गई थी, इसके बावजूद कोर्ट ने इस पर रोक लगाई।
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विरोध पर CAA और अनुच्छेद 370 पर रोक लगाये कोर्ट-
सवाल है कि क्या नागरिकता संशोधन कानून लागू करने और संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकांश अंश खत्म करने जैसे फैसले के खिलाफ समाज के एक वर्ग के आक्रोष को देखते हुये न्यायालय इसके अमल पर भी रोक लगायेगा?
अगर कल कुछ संगठनों ने मथुरा और काशी धार्मिक स्थलों का मुद्दा लेकर 1991 में बनाये गये उपासना स्थल (विशेष उपबंध) कानून के खिलाफ मोर्चेबंदी कर दी तो क्या उसके अमल पर भी रोक लगायी जायेगी?
न्यायालय शायद ऐसा नहीं करेगा लेकिन निश्चित ही किसानों के एक वर्ग के आन्दोलन से उत्पन्न स्थिति के मद्देनजर तीन कृषि कानूनो के अमल पर रोक लगाकर न्यायालय ने एक ऐसी नजीर पेश की है जिसका अनेक संगठन लाभ उठाने का प्रयास करेंगे।
कृषि क़ानूनों के अमल पर रोक लगाने के आदेश को न्यायपालिका की छवि सुधारने की कवायद के रूप में भी देखा जा रहा है क्योंकि हाल के समय में अनेक मामलों की सुनवाई को लेकर सोशल मीडिया और सामाजिक हलके में न्यायपालिका की कार्यशैली पर सवाल उठाये जा रहे थे।
मध्यस्थ या न्यायिक प्रशासक-
न्यायालय ने किसानों की समस्याओं और शंकाओं पर विचार कर अपने सुझाव देने के लिये चार सदस्यीय समिति गठित कर दी है। समिति को अपनी पहली बैठक की तारीख से दो महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट न्यायालय को सौंपनी है।
समिति की पहली बैठक आज से दस दिन के भीतर होगी। इस तरह से न्यायालय अप्रत्यक्ष रूप से किसानों और सरकार के बीच चल रहे विवाद में मध्यस्थ या कहें कि न्यायिक प्रशासक की भूमिका में आ गया है।
न्यायालय ने वैसे तो पिछले साल 17 दिसंबर को ही संकेत दे दिया था कि इस विवाद का समाधान खोजने के लिये वह एक समिति गठित करने पर विचार कर रहा है। न्यायालय ने इस मामले में किसान संगठनों को नोटिस भी जारी किये थे। लेकिन किसानों के आन्दोलनकारी संगठनों ने इस समिति के समक्ष आने से ही इनकार कर दिया है।
जस्टिस बोबडे के मुख्य न्यायाधीश रहते अब इन कानूनों पर अमल संभव नही-
प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे के कार्यकाल में इन कानूनों पर अमल संभव नहीं लगता क्योंकि वह 23 अप्रैल को सेवानिवृत्त हो रहे हैं और उस समय तक शायद ही यह समिति अपना काम पूरा कर सके।
न्यायालय ने सोमवार को अटार्नी जनरल से जानना चाहा था कि क्या सरकार इन कानूनों पर अमल स्थगित करने के लिये तैयार है अन्यथा हम ऐसा कर देंगे।
अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने इन दोनों ही बिन्दुओं का पुरजोर विरोध किया था।इस पर पीठ की टिप्पणी थी कि हम ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आप समस्या हल करने में विफल रहे हैं। केन्द्र सरकार को इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। इस कानून की वजह से हड़ताल हुयी है और अब आपको ही इसे हल करना होगा।