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Savitri Phule Jayanti: सावित्री फूले जिन्होंने महिलाओं की शिक्षा को अलख जगाने बीड़ा उठाया औऱ उनके लिए शिक्षा के द्वार खोले

Savitri Phule Jayanti
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सावित्री फूले जयंती: जब वो निकलती तो लोग उसके ऊपर कीचड़ फेंकते थे पर वो फ़िर भी मुस्कुराती हुई अपने रास्ते चली जाती। ये आज भी होता है,जब कोई स्त्री आगे बढ़ती है तब लोग यही करते हैं। जब उस पर गोबर फेंका जाता, तो वो अपने थैले में रखी दूसरी साड़ी पहन लेती।

इससे सावित्री फूले या उनके काम को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। फ़ालतू वाद-विवाद में उन्होंने वक़्त ज़ाया नहीं किया। उन्होंने महिला शिक्षा के प्रति जो किया उनका नाम इतिहास में दर्ज हो गया, और गोबर फेंकने वाले, ‘गोबर फेंकने वाले’ नाम से ही जाने जाते हैं।

समाज की उन रूढ़िवादी मान्यताओं, व्यवस्था और परंपरा में शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए तय स्थान को आधुनिक भारत में पहली बार जिस महिला ने संगठित रूप से चुनौती दी, उनका नाम सावित्री बाई फुले है। वे आजीवन शूद्रों-अति शूद्रों की मुक्ति और महिलाओं की मुक्ति के लिए संघर्ष करती रहीं।

आधुनिक भारतीय पुनर्जागरण के दो केंद्र रहे हैं- बंगाल और महाराष्ट्र। बंगाली पुनर्जागरण मूलत: हिंदू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परंपराओं के भीतर सुधार चाहता था और इसके अगुवा उच्च जातियों और उच्च वर्गों के लोग थे।

इसके विपरीत महाराष्ट्र के पुनर्जागरण ने हिंदू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परंपराओं को चुनौती दी। वर्ण-जाति व्यवस्था को तोड़ने और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व के खात्मे के लिए संघर्ष किया। महाराष्ट्र के पुनर्जागरण की अगुवाई शूद्र और महिलाएं कर रही थीं।

इस पुनर्जागरण के दो स्तंभ थे- सावित्री बाई फुले और उनके पति जोतिराव फुले।

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ब्राह्मणवाद को चुनौती देते हुए घर छूट गया लेकिन महिलाओं की शिक्षा का सपना बना रहा-

फुले दंपत्ति के महिला शिक्षा के प्रति कार्य सीधे ब्राह्मणवाद को चुनौती थे। इससे उनके एकाधिकार को चुनौती मिल रही थी, जो समाज पर उनके वर्चस्व को तोड़ रहा था।

पुरोहितों ने जोतिराव फुले के पिता गोविंदराव पर कड़ा दबाव बनाया। गोविंदराव पुरोहितों और समाज के सामने कमजोर पड़ गए। उन्होंने जोतिराव फुले से कहा कि या तो अपनी पत्नी के साथ स्कूल में पढ़ाना छोड़ें या घर।

एक इतिहास निर्माता नायक की तरह दुखी और भारी दिल से जोतिराव फुले और सावित्री बाई फुले ने शूद्रों-अति शूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए घर छोड़ने का निर्णय लिया।

जोतिराव फुले सावित्री बाई फुले के जीवनसाथी होने के साथ ही उनके शिक्षक भी बने। जोतिराव फुले और सगुणा बाई की देख-रेख में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद सावित्री बाई फुले ने औपचारिक शिक्षा अहमदनगर में ग्रहण की। उसके बाद उन्होंने पुणे के अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान से प्रशिक्षण लिया।

इस प्रशिक्षण स्कूल में उनके साथ फातिमा शेख ने भी अध्यापन का प्रशिक्षण लिया। यहीं उनकी गहरी मित्रता कायम हुई। फातिमा शेख उस्मान शेख की बहन थीं, जो जोतिराव फुले के घनिष्ठ मित्र और सहयोगी थे। बाद में इन दोनों ने एक साथ ही अध्यापन का कार्य भी किया।

1 जनवरी 1848 को उन्होंने लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला। जब 15 मई 1848 को पुणे के भीड़वाडा में जोतिराव फुले ने स्कूल खोला, तो वहां सावित्री फूले मुख्य अध्यापिका बनीं।

इन स्कूलों के दरवाजे सभी जातियों के लिए खुले थे। जोतिराव फुले और सावित्री फूले द्वारा लड़कियों की शिक्षा के लिए खोले जा रहे स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इनकी संख्या चार वर्षों में 18 तक पहुंच गई।

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ईसाई मिशनरियों से मिली पढ़ने की सीख-

सावित्री फूले का जन्म नायगांव नाम के गांव में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। यह महाराष्ट्र के सतारा जिले में है, जो पुणे के नजदीक है। वे खंडोजी नेवसे पाटिल की बड़ी बेटी थीं, जो वर्णव्यस्था के अनुसार शूद्र जाति के थे।

वे जन्म से शूद्र और स्त्री दोनों एक साथ थीं, जिसके चलते उन्हें दोनों के दंड जन्मजात मिले थे। ऐसे समय में जब शूद्र जाति के किसी लड़के के लिए भी शिक्षा लेने की मनाही थी, उस समय शूद्र जाति में पैदा किसी लड़की के लिए शिक्षा पाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। वे घर के काम करती थीं और पिता के साथ खेती के काम में सहयोग करती थीं। पहली किताब उन्होंने तब देखी, जब वे गांव के अन्य लोगों के साथ बाजार शिरवाल गईं।

उन्होंने देखा कि कुछ विदेशी महिला और पुरुष एक पेड़ के नीचे ईसा मसीह की प्रार्थना करते हुए गाना गा रहे थे। वे जिज्ञासावश वहां रुक गईं, उन महिला-पुरुषों में किसी ने उनके हाथ में एक पुस्तिका थमायी।

सावित्रा बाई पुस्तिका लेने में हिचक रही थीं। देने वाले ने कहा कि यदि तुम्हे पढ़ना नहीं आता, तब भी इस पुस्तिका को ले जाओ। इसमें छपे चित्रों को देखो, तुम्हें मजा आयेगा। वह पुस्तिका सावित्री बाई अपने साथ लेकर आईं।

9 वर्ष की उम्र में उनकी शादी 13 वर्षीय जोतिराव फुले के साथ हुई और वे अपने घर से जोतिराव फुले के घर आईं, तब वह पुस्तिका भी वे अपने साथ लेकर आई थीं।

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जब सावित्री फूले पढ़ाने को जाती तो लोग उनपर गोबर फेंकते-

जब पूरे दंपत्ति को परिवार से निकाल दिया गया तब भी सामाजिक कुरीतियों या कहें ब्राह्मणवादी शक्तियों ने सावित्री बाई फुले का पीछा नहीं छोड़ा।

जब सावित्री बाई फुले स्कूल में पढ़ाने जातीं, तो उनके ऊपर गांव वाले पत्थर और गोबर फेंकते। सावित्री बाई रुक जातीं और उनसे विनम्रतापूर्वक कहतीं, ‘मेरे भाई, मैं तुम्हारी बहनों को पढ़ाकर एक अच्छा कार्य कर रही हूं। आप के द्वारा फेंके जाने वाले पत्थर और गोबर मुझे रोक नहीं सकते, बल्कि इससे मुझे प्रेरणा मिलती है। ऐसे लगता है जैसे आप फूल बरसा रहे हों।

मैं दृढ़ निश्चय के साथ अपनी बहनों की सेवा करती रहूंगी। मैं प्रार्थना करूंगी की भगवान आप को बरकत दें।’ गोबर से सावित्री बाई फुले की साड़ी गंदी हो जाती थी, इस स्थिति से निपटने के लिए वह अपने पास एक साड़ी और रखती थीं। स्कूल में जाकर साड़ी बदल लेती थीं।

शिक्षा के साथ-साथ समाज की समस्याओं पर भी काम किया-

फुले दंपत्ति ने शिक्षा के साथ ही समाज की अन्य समस्याओं की ओर ध्यान देना भी शुरू किया। सबसे बदतर हालत विधवाओं की थी। ये ज्यादातर उच्च जातियों की थीं।

इसमें अधिकांश ब्राह्मण परिवारों की। अक्सर गर्भवती होने पर ये विधवाएं या तो आत्महत्या कर लेतीं या जिस बच्चे को जन्म देती, उसे फेंक देतीं। 1863 में फुले दंपत्ति ने बाल हत्या प्रतिबंधक गृह शुरू किया। कोई भी विधवा आकर यहां अपने बच्चे को जन्म दे सकती थी। उसका नाम गुप्त रखा जाता था।

इस बाल हत्या प्रतिबंधक गृह का पोस्टर जगह-जगह लगाया गया। इन पोस्टरों पर लिखा था कि ‘विधवाओं! यहां अनाम रहकर बिना किसी बाधा के अपना बच्चा पैदा कीजिए।

अपना बच्चा साथ ले जाएं या यहीं रखें, यह आपकी मर्जी पर निर्भर रहेगा।’ सावित्री बाई फुले बालहत्या प्रतिबंधक गृह में आने वाली महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चों की देखरेख खुद करती थीं। इसी तरह की एक ब्राह्मणी विधवा काशीबाई के बच्चे को फुले दंपत्ति ने अपने बच्चे की तरह पाला,जिसका नाम यशवंत था।

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अपने अंतिम समय मे भी लोगों की सेवा करती रही सावित्री बाई फूले-

1896 में पुणे और आस-पास के क्षेत्रों में अकाल पड़ा। सावित्री बाई फुले ने दिन-रात अकाल पीड़ितों को मदद पहुंचाने लिए एक कर दिया।

उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि अकाल पीड़ितों को बड़े पैमाने पर राहत सामग्री पहुंचाए। दलितों और महिलाओं की शिक्षिका और पथप्रदर्शक  सावित्री बाई का जीवन अनवरत अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते और न्याय की स्थापना के लिए बीता। उनकी मृत्यु भी समाज सेवा करते ही हुई।

1897 में प्लेग की वजह से पुणे में महामारी फैल गई। वे लोगों की चिकित्सा और सेवा में जुट गईं। स्वंय भी इस बीमारी का शिकार हो गईं। 10 मार्च 1897 को उनकी मृत्यु हो गई।

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