दलित उत्पीड़न- क्या क़ानून कमज़ोर है या उसे बनाने और लागू करने वालों की इच्छा शक्ति में कमी है?

दलित उत्पीड़न- क्या क़ानून कमज़ोर है या उसे बनाने और लागू करने वालों की इच्छा शक्ति में कमी है?
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एनसीआरबी ने हाल ही में भारत में अपराध के साल 2019 के आँकड़े जारी किए जिनके मुताबिक अनुसूचित जातियों के साथ अपराध के मामलों में साल 2019 में 7.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जहां 2018 में 42,793 मामले दर्ज हुए थे वहीं, 2019 में 45,935 मामले सामने आए।इनमें सामान्य मारपीट के 13,273 मामले, अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निवारण) क़ानून के तहत 4,129 मामले और रेप के 3,486 मामले दर्ज हुए हैं।

राज्यों में सबसे ज़्यादा मामले 2378 उत्तर प्रदेश में और सबसे कम एक मामला मध्य प्रदेश में दर्ज किया गया।

इसके अलावा जम्मू और कश्मीर, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड और त्रिपुरा में एससी/एसटी अधिनियम में कोई मामला दर्ज नहीं किया गया है। 2018 में दलित उत्पीड़न के 6,528 मामले सामने आए थे वहीं, 2019 में 8,257 मामले दर्ज हुए,अनुसूचित जनजातियों के ख़िलाफ़ अपराध में साल 2019 में 26।5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।

हमें ये स्वीकार्यता देनी होगी की आज भी जातिगत भेदभाव है-

दलित नेता उदित राज अपने एक बयान में कहते हैं कि सबसे पहले लोगों को ये स्वीकार करना होगा कि जातिगत भेदभाव होता है! क्योंकि आज कई पढ़े-लिखे लोग भी ये मानने को तैयार नहीं होते। उदित राज बीजेपी पर आरोप लगाते हैं कि सरकार निजीकरण लाकर आरक्षण की व्यवस्था ख़त्म करके इस असमानता को और बढ़ा रही है। वो कहते हैं,”मौजूदा सरकार में नौकरशाहों के बीच डर ख़त्म हुआ है। जब नेताओं को ही दलितों की चिंता नहीं होगी तो इसका दबाव नौकरशाही पर कैसे बनाएंगे?”

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महत्वपूर्ण पद आज भी खाली हैं-

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग और राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग में अध्यक्ष पद लंबे समय से खाली पड़े हैं। सरकार की ओर से इन पर कोई नियुक्ति नहीं की गई है। ये संस्थाएं अनुसूचित जाति और जनजातियों के ख़िलाफ़ हो रहे अत्याचार पर नज़र रखती हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोगों की वेबसाइट पर भी अध्यक्ष के अलावा कई अन्य पद वैकेंट (रिक्त) दिखाई देते हैं।

सरकार कोई रुचि ही नही ले रही इन संस्थाओं के प्रति-

यदि सरकार इन संस्थाओं के प्रति गंभीर है,अगर सरकार वाकई दलितों को लेकर चिंतित है तो इतने महत्वूपर्ण पद क्यो भरे नहीं जाते? इन पदों को न भरकर एक तरह से सरकार ऐसी संस्थाओं को कमज़ोर ही कर रहे हैं।

“पहले ही ये संस्थाएं बहुत ताकतवर नहीं हैं। इनके पास ना तो वित्तीय ताकत है और ना ही नियुक्तियां करने की स्वतंत्रता। इस कामों में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की भूमिका होती है। लेकिन, फिर भी ये संस्थाएं दबाव बनाने का काम करती हैं और ऐसे मामलों में पुलिस-प्रशासन से जवाब मांग सकती हैं।

दलितों के लिए क्या प्रावधान हैं कानून में-

भारत में दलितों की सुरक्षा के लिए अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 मौजूद है।इसके तहत एससी और एसटी वर्ग के सदस्यों के ख़िलाफ़ किए गए अपराधों का निपटारा किया जाता है। इसमें अपराधों के संबंध में मुकदमा चलाने और दंड देने से लेकर पीड़ितों को राहत एवं पुनर्वास देने का प्रावधान किया गया है।साथ ही ऐसे मामलों के तेज़ी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन भी किया जाता है।

अस्पृश्यता पर रोक लगाने के लिए अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 बनाया गया था जिसे बाद में बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कर दिया गया। इसके तहत छुआछूत के प्रयोग एवं उसे बढ़ावा देने वाले मामलों में दंड का प्रावधान है लेकिन जानकार बताते हैं, कुछ मामले तो मीडिया और राजनीतिक पार्टियों के हस्तक्षेप के कारण सबकी नज़र में आ जाते हैं लेकिन कई तो पुलिस थानों में दर्ज़ भी नहीं हो पाते।

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हर स्तर पर भेदभाव-

दलित युवकों की डंडों से की पिटाई। दलित लड़की के साथ रेप। दलितों के मंदिर में घुसने पर रोक। जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव की तो ख़बरें भी नहीं लगतीं।

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पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के हाथरस में 19 साल की एक दलित युवती के साथ कथित गैंगरेप और हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया आज़ादी के 73 सालों बाद भी आज दलित सामनता के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

हमारे देश में क़ानून तो बहुत हैं लेकिन समस्या सामाजिक मूल्यों की है। अब भी ऊंची जाति के लोग दलितों को मनुष्यों का और बराबरी का दर्जा देने के लिए तैयार नहीं हैं।

इसमें परिवर्तन हो रहा है लेकिन वो बहुत धीमा है। “मीडिया, पुलिस महकमा, न्याय व्यवस्था सब जगह सोचने का तरीका अभी पूरी तरह बदला नहीं है। पुलिस स्टेशन पहली जगह है जहां कोई पीड़ित जाता है लेकिन कई बार वहां पर उसे बेरुखी मिलती है। न्याय पाना गरीबों के लिए हमेशा मुश्किल होता है और दलितों का एक बड़ा वर्ग आर्थिक रूप से कमज़ोर है।

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