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बिना शिक्षक कैसे साकार होगी भारत को विश्वगुरू बनाने की परिकल्पना?

बिना शिक्षक कैसे साकार होगी भारत को विश्वगुरू बनाने की परिकल्पना?
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आज शिक्षक दिवस (Teacher’s Day) है। इस मौके पर समझिए कि हमारे शिक्षण संस्थान कितनी बड़ी संख्या में टीचरों की कमी का सामना कर रहे हैं।

भारत सरकार ने देश में स्कूली और उच्च शिक्षा में व्यापक सुधार का रास्ता प्रशस्त करने के लिए हाल ही में नई शिक्षा नीति को मंजूरी दी है। इसके सहारे देश को विश्वगुरु बनाने का सपना दिखाया गया है, लेकिन जब विश्वविद्यालयों में शिक्षक ही नहीं हैं तो यह सपना हकीकत में कैसे बदल पाएगा?

क्या देश बिना शिक्षकों के ही विश्वगुरु बनेगा?

देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में तकरीबन एक तिहाई शिक्षकों के पद खाली हैं

दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर लक्ष्मण यादव की ओर से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) में डाली गई एक आर.टी.आई के जवाब में बताया गया है कि देश की 40 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसरों के एक तिहाई से अधिक पद खाली हैं।

40 विश्विद्यालयों में पिछड़े वर्ग के सिर्फ 9 प्रोफेसर कार्यरत हैं

सूचना के अधिकार के तहत मांगे गए जवाब में जो रिकॉर्ड उपलब्ध करवाया गया है, उसके मुताबिक 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी (OBC) के सिर्फ 9 प्रोफेसर कार्यरत हैं जबकि जनसंख्या के हिसाब से यह सबसे बड़ा वर्ग है।

अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) के 51 और अनुसूचित जनजाति के महज 8 प्रोफेसर काम कर रहे हैं।

दूसरी ओर सामान्य वर्ग के 951 प्रोफेसर कार्यरत हैं।

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ज्यादातर पदों पर हो रही है कॉन्ट्रैक्ट भर्तियां

भर्ती हो भी रही है तो कांट्रैक्ट पर। बहरहाल, हम बात करें केंद्रीय विश्वविद्यालयों (Central University) की तो इनमें प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसरों के कुल 18,243 पद हैं, जिनमें से 6,668 खाली हैं।

यह 1 जनवरी 2020 तक की स्थिति है। सबसे बुरा हाल आरक्षित सीटों का है। ऐसी अधिकांश सीटें खाली ही चल रही हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के ही एसोसिएट प्रोफेसर सुबोध कुमार कहते हैं कि ओबीसी और एससी, एसटी के आरक्षित पदों पर भर्ती (Recruitment) ही नहीं हो रही है।

इन पदों को भरने की सरकार की मंशा ही नहीं दिखती। शैक्षणिक संस्थानों में कांट्रैक्ट को बढ़ावा दिया जा रहा है। एजुकेशन को ग्लोबल करने के क्रम में जिस तरह से शिक्षा का निजीकरण किया जा रहा है, उसमें गरीब शैक्षणिक रूप से और पिछड़ते जाएंगे।

रिजर्व पदों पर क्यों नहीं होती हैं भर्तियां?

दिल्ली विश्वविद्यालय में बतौर सहायक आचार्य प्रोफेसर लक्ष्मण यादव कहते हैं कि ऐसे हालात क्यों पैदा हुए हैं?

उन्होंने कहा, “प्रोफेसर के पद में एक आजादी है। वो लिख पढ़ सकता है। समाज में बदलाव के लिए बोल सकता है।

जबकि सिविल सर्विसेज में ऐसा नहीं है। वो जानते हैं पर बोल नहीं सकते। ऐसे में शिक्षण संस्थानों के उच्च पदों पर बैठे अपर कास्ट के कुछ लोग नहीं चाहते कि ओबीसी और दलित वर्ग के लोग प्रोफेसर बनें।

वो प्रोफेसर बनेंगे तो समाज में बदलाव के लिए बोलेंगे, चेतना लाएंगे। ऐसा कुछ लोगों को मंजूर नहीं है। सरकार, पब्लिक सेक्टर के एजुकेशन को ही खत्म करना चाहती है.”

छात्रों का भविष्य अटका है अधर में

सामाजिक कार्यकर्ता ओपी धामा का कहना है कि स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में जो भी पोस्ट खाली हैं, उससे बच्चों का सबसे बड़ा नुकसान हो रहा है। इसलिए सरकार बैकलॉग भरने के लिए अभियान चलाए और जो संवैधानिक रिजर्वेशन (Constitutional reservation) है उसे दिया जाए। वरना बिना शिक्षकों के शिक्षा व्यवस्था चौपट हो जाएगी।

खाली पदों के लिए क्या कुछ कह रही है सरकार?

मानव संसाधन मंत्रालय का कहना है कि रिक्तियों का होना और उन्हें भरना एक सतत प्रक्रिया है। विश्वविद्यालय स्वायत्त संस्था हैं, इसलिए शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने का दायित्व उनका है। हालांकि यूजीसी लगातार खाली पदों के मामलों की मॉनीटरिंग कर रहा है। विश्वविद्यालयों को कुल पदों की 10 फीसदी सीमा तक कांट्रैक्ट पर शिक्षक भर्ती करने की अनुमति है।

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