वर्तमान परिदृश्य में अर्थव्यवस्था की समीक्षा कैसे करे?

वर्तमान परिदृश्य में अर्थव्यवस्था की समीक्षा कैसे करे?
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देश की अर्थव्यवस्था वर्तमान समय में बहुत ही बुरे दौर से गुजर रही है अर्थव्यवस्था के जानकार इसके लिए नोटबंदी और जीएसटी जैसे निर्णयों को ठहरा रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा की थी, जिसके बाद से ही अर्थव्यवस्था में सुस्ती देखी जा रही है। पिछले कुछ सालों में बेरोज़गारी दर में भी भारी वृद्धि देखी गई है।

1991 से अलग हैं भारत के मौजूदा आर्थिक हालात

2020-21 वित्त वर्ष की पहली तिमाही यानी अप्रैल से जून के बीच विकास दर में 23.9 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। जीडीपी में आई इस बड़ी गिरावट के लिए पहले से सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था के दौरान लॉकडाउन लागू करने को ज़िम्मेवार बताया गया है।
विश्व बैंक के सीनियर वाइस-प्रेसिडेंट और मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद पर काम कर चुके कौशिक बसु बताते हैं कि “अगर आप बेरोज़गारी के आंकड़े देखेंगे तो यह 45 सालों में सर्वाधिक है। पिछले 45 सालों में कभी भी बेरोज़गारी की दर इतनी अधिक नहीं रही। युवा बेरोज़गारी की दर काफ़ी अधिक है। बेरोज़गारी की दर में बढ़ोत्तरी और ग्रामीण खपत में कमी को आपातकालीन स्थिति की तरह लिया जाना ज़रूरी है।”

आज़ादी के बाद भारत में इस तरह का आर्थिक संकट इससे पहले 1991 के दौरान आया था। हालांकि 2008 में आई वैश्विक मंदी की वजह से भी भारत की अर्थव्यवस्था पर आंशिक रूप से प्रभाव पड़ा था, लेकिन तब भारत का घरेलू उत्पादन मज़बूत स्थिति में था और 2008 में जीडीपी दर क़रीब 9 प्रतिशत था।

श्रम भागीदारी से अर्थव्यवस्था में सक्रिय कार्यबल का पता चलता है। सेंटर फॉर इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के मुताबिक यह श्रम भागीदारी 2016 में लागू की गई नोटबंदी के बाद 46 फ़ीसद से घटकर 35 फ़ीसद तक पहुँच गई थी। इसने भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है।

1991 और अब के हालातों में क्या अंतर है?

अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा की मानें तो 1991 में जब भारत में आर्थिक संकट आया था, तब दुनिया के दूसरे हिस्सों में स्थिति बेहतर थी। वैसी स्थिति में अगर भारत को ज़रूरत पड़ी थी, तब हम दूसरे देशों से मदद ले सकते थे क्योंकि वो मदद देने की स्थिति में थे।

लेकिन कोरोना महामारी ने अभी पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को दबाव में डाल दिया है। लगभग सभी देश इस संकट से जूझ रहे हैं। मौजूदा आंकड़ों के हिसाब से इस बार का आर्थिक संकट 1991 के आर्थिक संकट से भी कहीं बड़ा नज़र आता है लेकिन अर्थशास्त्री मानते हैं कि ये दोनों ही आर्थिक संकट कई मायनों में एक-दूसरे से अलग हैं।

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सन 1991 के वक्त के संकट में डॉलर के रिज़र्व बहुत कम रह गए थे और आयात करने की आपकी क्षमता समाप्त हो गई थी। तब सोना गिरवी रखना पड़ा था और उसके बदले में लोन मिला था।

लेकिन आज जो संकट पैदा हुआ है, वो काफ़ी हद तक आपने ख़ुद से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार कर पैदा किया है। जब बहुत सीमित मामले थे तभी शुरू के दौर में ही सख्त और व्यापक लॉकडाउन लगा दिया गया, जबकि इसे चुनिंदा जगहों पर लगाना चाहिए था। इससे पहले से आ रही आर्थिक सुस्ती पर और प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।”

नोटबंदी और जीएसटी ने व्यापक तौर पर अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाया

“दो फ़ैसलों की वजह से ग्रोथ रेट पहले ही कम हो गया था। इसमें नोटबंदी नीतिगत रूप से एक ग़लत फ़ैसला था और उसका क्रियान्वयन भी बहुत बुरे तरीके से किया गया। दूसरा फ़ैसला था जीएसटी का। इसके फ़ायदे को लेकर फिर भी कुछ आर्थिक तर्क दिया जा सकता है लेकिन इसके क्रियान्वयन में बहुत गड़बड़ियाँ थीं। कुछ बाहरी कारणों से भी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ रहा था। इस पर लॉकडाउन के रूप में और बड़ा झटका दे दिया गया।”

आर्थिक मामलों के जानकार भरत झुनझुनवाला कहते हैं कि इस बार के आर्थिक संकट में एक बाहरी फ़ैक्टर कोविड-19 का है जबकि उस वक़्त ऐसा कोई संकट नहीं था। 1991 में जो भारत में आर्थिक संकट आया था, उसके लिए मूल रूप से हमारी नीतियाँ दोषी थीं जिसे ठीक कर कमोबेश उससे बाहर निकल आए थे।

मेक इन इंडिया सिर्फ दिखावा है

“अभी के दौर में विदेशी कंपनियाँ भारत में निवेश करने नहीं आ रही हैं, लेकिन भारत सरकार को यह बात नहीं समझ आ रही है और वो अभी भी उसी विदेशी निवेश के पीछे पड़े हुए हैं। घरेलू निवेश को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं। मेक इन इंडिया का सिर्फ़ दिखावा कर रहे हैं। अगर वास्तव में मेक इन इंडिया सरकार करना चाहती है तो फिर ‘आयात कर’ बढ़ा दे। उसके बाद खुद ही मेक इन इंडिया चालू हो जाएगा।”

मूल समस्या पर ध्यान देने की आवश्यकता है

भरत झुनझुनवाला पिछले आर्थिक संकट से सबक़ लेने की बात पर कहते हैं कि हमें मूल समस्या को ठीक करने पर ज़ोर देना चाहिए। पिछली बार मूल समस्या यह थी कि हमने रुपये को ओवर वैल्यू कर रखा था। रुपये का दाम अधिक होने की वजह से निर्यात नहीं हो पा रहा था और आयात ज़्यादा थे। जिसे मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए ठीक किया गया और रुपये का मूल्य जो पहले पांच या साढ़े पांच था उसे बढ़ाकर 15 और फिर बाद में 25 आ तक गया। इससे उस संकट से निपटने में मदद मिली।

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