चीन लाल आँख दिखा रहा है, भारतीय नेतृत्व क्यों है मौन? क्या चाइना को समझने में नेहरू वाली भूल कर रहे हैं मोदी?

चीन लाल आँख दिख रहा है भारतीय नेतृत्व क्यों है मौन, क्या चाइना को समझने में नेहरू वाली भूल कर रहे हैं मोदी।
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बीते कुछ महीनों से एलएसी यानी भारत चीन सीमा पर हालात ठीक नहीं, सीमा विवाद को लेकर तनातनी है और स्थिति तनावपूर्ण है।

यहां तक कि कुछ दिनों पहले तकरीबन चार दशक बाद एक खूनी झड़प भी हुई, जिसमें भारत को अपने न केवल 20 जवानों को खोना पड़ा बल्कि सेना के कुछ सिपाही और उच्च स्तर के अधिकारियों को बंदी भी बना लिया था। लेकिन दबाव बनाने के बाद में उन्हें मुक्त करना पड़ा हालांकि चीन ने अपने यहां किसी भी प्रकार का कोई भी जनहानि होने की पुष्टि नहीं की।

भारतीय इलाक़ों में अतिक्रमण की शुरुआत चीन ने 1950 के दशक के मध्य में शुरू कर दी थी। 1957 में चीन ने अक्साई चिन के रास्ते पश्चिम में 179 किलोमीटर लंबी सड़क बनाई सरहद पर दोनों देशों के सैनिकों की पहली भिड़ंत 25 अगस्त 1959 को हुई। चीनी गश्ती दल ने नेफ़ा फ्रंट्रियर पर लोंगजु में हमला किया था।

1949 में माओत्से तुंग ने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का गठन किया। एक अप्रैल 1950 को भारत ने इसे मान्यता दी और राजनयिक संबंध स्थापित किया।

चीन को इस तरह तवज्जो देने वाला भारत पहला ग़ैर-कम्युनिस्ट देश बना। 1954 में भारत ने तिब्बत को लेकर भी चीनी संप्रभुता को स्वीकार कर लिया। मतलब भारत ने मान लिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है, ‘हिन्दी-चीनी, भाई-भाई’ का नारा भी लगा।

जून 1954 से जनवरी 1957 के बीच चीन के पहले प्रधानमंत्री चाउ एन लाई चार बार भारत के दौरे पर आये। अक्टूबर 1954 में नेहरू भी चीन गए।

नेहरू के चीन दौरे को लेकर अमरीकी अख़बार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने लिखा था कि ‘ग़ैर-कम्युनिस्ट देश के किसी प्रधानमंत्री का पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना बनने के बाद का यह पहला दौरा है।’ तब न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा था कि ”एयरपोर्ट से शहर के बीच लगभग 10 किलोमीटर की दूरी तक नेहरू के स्वागत में चीन के लोग ताली बजाते हुए खड़े थे।”

इस दौरे में नेहरू की मुलाक़ात ना केवल प्रधानमंत्री से हुई, बल्कि पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के प्रमुख माओ से भी हुई।

दूसरी तरफ़ तिब्बत की हालत लगातार ख़राब हो रही थी और चीन का आक्रमण बढ़ता जा रहा था।

1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला शुरू कर दिया और उसे अपने नियंत्रण में ले लिया। तिब्बत पर चीनी हमले ने पूरे इलाक़े की जियोपॉलिटिक्स को बदल दिया। चीनी हमले से पहले तिब्बत की नज़दीकी चीन की तुलना में भारत से ज़्यादा थी। आख़िरकार तिब्बत एक आज़ाद मुल्क नहीं रहा।

स्वीडिश पत्रकार बर्टिल लिंटनर ने अपनी क़िताब ‘चाइना इंडिया वॉर’ में लिखा है, ”तब नेहरू सरकार में गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल उन कुछ नेताओं में से एक थे जो तिब्बत में हुए इस बदलाव की अहमियत को समझते थे। इसे लेकर पटेल ने नेहरू को दिसंबर 1950 में अपनी मौत से एक महीने पहले नवंबर 1950 में एक पत्र भी लिखा था।

आदर्शवादी प्रधानमंत्री नेहरू

पटेल ने लिखा था, “तिब्बत के चीन में मिलाये जाने के बाद वह हमारे दरवाज़े तक पहुँच गया है। इसके नतीजे को हमें समझने की ज़रूरत है।

पूरे इतिहास में उत्तर-पूर्वी सीमा को लेकर हम शायद ही कभी परेशान हुए हैं। उत्तर में हिमालय सभी ख़तरों के सामने हमारे लिए रक्षा कवच के रूप में खड़ा रहा है।

तिब्बत हमारा पड़ोसी था और उससे कभी कोई परेशानी नहीं हुई। पहले चीनी विभाजित थे। उनकी अपनी घरेलू समस्याएं थीं और उन्होंने हमें कभी परेशान नहीं किया, लेकिन अब हालात बदल गये।”

इसी क़िताब में बर्टिल लिंटनर ने लिखा है, ”आदर्शवादी नेहरू नये कम्युनिस्ट शासित चीन को समझने में नाकाम रहे। उन्हें लगता रहा कि दोनों देशों के बीच दोस्ती ही रास्ता है।

नेहरू का मानना था कि भारत और चीन दोनों उत्पीड़न के ख़िलाफ़ जीत हासिल कर खड़े हुए हैं और दोनों मुल्कों को एशिया, अफ़्रीका में आज़ाद हुए नये देशों के साथ मिलकर काम करना चाहिए।

चीन की वादाखिलाफी से अपरिचित थे पंडित नेहरू

कहा जाता है कि 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया तो ये केवल हिमालय के किसी इलाक़े पर नियंत्रण या सरहद को बदलने के लिए नहीं था बल्कि ये सभ्यता की जंग थी।

साऊथ-ईस्ट एशिया पर गहरी समझ रखने वाले इजराइली जानकार याकोव वर्टज़बर्जर अपनी क़िताब ‘चाइना साउथ वेस्टर्न स्ट्रैटेजी’ में लिखतें हैं कि “नेहरू चीन और भारत के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक फर्क़ को समझने में नाकाम रहे थे।

इसका नतीजा यह हुआ कि वो चीन के इरादे को समझ नहीं पाये। नेहरू को लगता था कि पूरी दुनिया भारत और चीन की सीमा को वैध रूप से स्वीकार करती है।

अगर भारत समझौतों और संधियों को ही आगे कर दें तो चीन को आख़िरकार स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि भारत क़ानूनी रूप से सही है। लेकिन चीन ने कभी अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों की परवाह नहीं की।

भारत में आज़ादी की लड़ाई सैद्धांतिक मूल्यों पर केंद्रित थीं

याकोव वर्टज़बर्जर ने लिखा है कि ”नेहरू इस बुनियादी अंतर को भी नहीं समझते थे कि भारत और चीन दोनों ने अपनी आज़ादी अलग-अलग तरह से हासिल की है। भारत ने अंग्रेज़ों से आज़ादी की लड़ाई जैसे लड़ी थी वैसी लड़ाई जापानी उपनिवेश और घरेलू ताक़तों के ख़िलाफ़ चीन की नहीं थी।

भारत ने आज़ादी की लड़ाई में जीत व्यापक रूप से सविनय अवज्ञा के ज़रिए हासिल की थी और हिंसा को बुराई को तौर पर चिह्नित किया गया था।

”दूसरी तरफ़ माओ की कम्युनिस्ट पार्टी का सिद्धांत बिल्कुल अलग था। नेहरू ने ब्रिटिश जियोस्ट्रैटिजिक अवधारणा को स्वीकार किया था क्योंकि नेहरू की रणनीति में अतीत और वर्तमान के बीच जुड़ाव था।

दूसरी तरफ़ माओ की रणनीति अतीत से बिल्कुल मुक्त थी। माओ ने 1949 में कम्युनिस्टों की जीत से पहले अंतरराष्ट्रीय संधियों को एकतरफ़ा होने का आरोप लगाते हुए ख़ारिज कर दिया।

भारत चीन के साथ लगी सीमा को ऐतिहासिकता का आधार बनाते हुए सही ठहराने में लगा रहा और चीन युद्ध की तैयारी कर रहा था। माओ ने मैकमोहन रेखा को औपनिवेशिक बताते हुए इसे मानने से इनकार कर दिया।  चीन यहां तक कि पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करने लगा।

प्रधानमंत्री मोदी नही ले रहे सबक

रक्षा विशेषज्ञ राहुल बेदी कहते हैं कि “1962 और उससे पहले जो ग़लतियां नेहरू ने की थी, उन ग़लतियों से पीएम मोदी ने कोई सबक़ नहीं लिया है। बर्टिल लिंटनर ने अपनी क़िताब में लिखा है कि ”नेहरू को चीनी कम्युनिस्ट बुर्जुआ राष्ट्रवादी नेता मानते थे।

यहाँ तक कि वो नेहरू को मध्यम स्तर के भी समाजवादी नेता भी नहीं मानते थे। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से नेहरू पर शुरुआती हमला एक अक्टूबर 1949 को पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की घोषणा से पहले ही शुरू हो गया था।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की कल्चरल कमेटी की पत्रिका शिजी ज़िशी (विश्व ज्ञान) ने 19 अगस्त 1949 के अंक में नेहरू को साम्राज्यवादियों का मददगार कहा था।

नेहरू को ये पता भी नहीं था कि हिन्दी चीनी भाई-भाई नारे के पीछे क्या चल रहा है। सीआईए की रिपोर्ट के अनुसार म्यांमार के पूर्व प्रधानमंत्री बा स्वे ने नेहरू को 1958 में चिट्ठी लिखकर आगाह किया था कि वो चीन से सीमा विवाद को लेकर सतर्क रहें।

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मोदी सब कुछ जानकर भी बन रहे हैं अंजान।

बेदी कहते हैं, ”मोदी सरकार के पास ख़ुफ़िया सूचना थी कि चीन लद्दाख में बहुत कुछ कर रहा है और करने वाला है लेकिन ये हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे।

यह सवाल तो सबसे अहम है कि चीनी सैनिक हमारे इलाक़े में घुस कैसे गए? मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही चीन को ऐसे पेश किया मानो सबसे बड़ा और भरोसेमंद दोस्त है। प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से 18 बार मिल चुके हैं। इन मुलाक़ातों का मतलब क्या है?”

प्रधानमंत्री मोदी ने यहाँ तक कह दिया कि न उनकी सीमा में कोई घुसा न कोई पोस्ट चीन के कब्जे में है जबकि बीते दिनों रक्षा मंत्रालय ने भी सीमा पर घुसपैठ की बात स्वीकारी है।

मोदी के इस बयान को चीन पूरी दुनिया मे दिखा रहा है और सबकुछ सामान्य होने की बात कह रहा है।
जबकी समूचा विपक्ष लामबंद होकर सरकार की मुखालफत कर रहा है और यह कह रहा है कि देश को सीमा के हालातों से अवगत कराया जाए जो कि सरकार नहीं कर रही है।

‘नेहरू वाली ग़लती भारत की हर सरकार में की गई’

राहुल बेदी कहते हैं कि ‘यही भारत के नेताओं में दूरदर्शिता के अभाव को दर्शाता है। वो कहते हैं, ”पीएम मोदी को पता होना चाहिए कि चीन भारत की तरह चुनाव को देखते हुए पाँच साल को ध्यान में रखकर काम नहीं करता है।

वो अगले 50 सालों की योजना और रणनीति पर काम करता है और उसे अंजाम तक पहुंचाता है। मोदी कहते हैं कि चीन भारत की सीमा नहीं है और दूसरी तरफ़ मुलाक़ात पर मुलाक़ात जारी है। सरकार को तो पहले अपने ही विरोधाभासों से मुक्त होने की ज़रूरत है।

”चीन के लिए सीपीईसी बहुत अहम है और वो पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर से होकर जा रहा है। चीन की नज़र सियाचिन ग्लेशियर पर भी है।

चीन किसी भी सूरत में नहीं चाहता है कि सीपीईसी पर किसी की नज़र रहे। मुझे नहीं लगता कि वो लद्दाख से पीछे हटने जा रहा है। वो हर हाल में रहेगा और क्योंकि ये उसने अचानक नहीं किया है बल्कि पूरे प्लान के साथ किया है। संभव है कि स्थिति बिगड़ेगी और दोनों देश टकरा भी सकते हैं, लेकिन भारत के लिए इस बार भी बहुत आसान नहीं है।

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सरकार की नीतियां चीन के प्रति बहुत संतुष्टजनक नहीं है

रक्षा विश्लेषक सुशांत सरीन की माने तो एस जयशंकर और वांग यी के बीच हुई बातचीत के बाद जो साझा बयान जारी हुआ है, उसमें कुछ भी स्पष्ट नहीं है। वो कहते हैं, ”दोनों विदेश मंत्रियों के संयुक्त बयान में कुछ भी साफ़ नहीं है। मुझे नहीं लगता है कि वहां तनाव कम होने जा रहा है और चीन पीछे हट जाएगा। ऐसी बातचीत पहले भी हो चुकी है।”

सुशांत सरीन का मानना है कि चीन को ध्यान में रखते हुए अगर किसी सरकार ने कुछ काम किया है तो वो मोदी सरकार ही है नहीं तो सभी हाथ मलते रहे। वो कहते हैं, ”उस इलाक़े में इन्फ़्रास्ट्रक्चर को लेकर इस सरकार ने ख़ूब काम किया है। काम अब भी जारी है।

चीन हमारे इलाक़े में घुसा तो इस सरकार ने भी सेना और लड़ाकू विमानों की तैनाती कर दी। मोदी सरकार नेहरू की तरह बैठी नहीं है बल्कि तैयारियों में लगी है।मुझे लगता है कि भारत के दो रक्षा मंत्रियों ने चीन के मामले में देश का सबसे ज़्यादा नुकसान किया है। एक नेहरू के रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन और दूसरे मनमोहन सिंह के एके एंटोनी।

भारत को रहना होगा सावधान, लगातार खतरा बढ़ रहा है

गुरुवार को रूस में सरहद पर तनाव कम करने को लेकर चीन के विदेश मंत्री वांग यी और भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर की मुलाक़ात हुई है।

दोनों मंत्रियों के बीच कुछ मुद्दों पर सहमति बनी है, लेकिन इसमें स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा गया है कि चीन की सेना भारत की आपत्ति वाले इलाक़े से पीछे हट जाएगी। दोनों मंत्रियों के बीच बनी सहमति को लेकर भारत के जाने-माने रणनीतिक विश्लेषक ब्रह्मा चेलानी ने ट्वीट कर कहा है, ”चीन और भारत के विदेश मंत्रियों के साझे बयान में भारत की वह मांग ग़ायब है जिसमें सीमा पर यथास्थिति बहाल करने को कहा गया था।

वांग यी से पहले चीन के रक्षा मंत्री से भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की मुलाक़ात रूस में हुई थी। इसके अलावा भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से भी चीनी रक्षा मंत्री की बात हुई थी,सैन्य स्तर पर भी बात चल रही है लेकिन अब तक चीन इस बात को लेकर तैयार नहीं हुआ है कि पूर्वी लद्दाख में सीमा पर अप्रैल से पहले वाली स्थिति होगी।